जैसे शान्ति का भाव जीवन में आवश्यक है, उसी प्रकार क्रोध भी जीवन का आवश्यक अंग है। लेकिन, इस एक पंक्ति के आधार पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले, आगे भी पढ़ें। जैसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, यह चार पुरुषार्थ किसी भी व्यक्ति के जीवन को पूर्ण करते हैं वैसे ही क्रोध का तत्व एक समाज के लिए, एक योद्धा के लिए बहुत ही आवश्यक होता है। किन्तु उस क्रोध की आवश्यकता, उस क्रोध की उपयोगिता और उस क्रोध से निकले हुए परिणाम की उपेक्षा नहीं की जा सकती। क्रोध तो गुरूजी ने भी कई बार किया, लेकिन हर बार केवल किसी की भलाई के लिए, अथवा किसी का पथ प्रदर्शित करने के लिए। उनके क्रोध का परिणाम सर्वथा उपयोगी और ज्ञानप्रद ही रहा। उनके द्वारा दिए गए असंख्य वरदानों में से कुछ का कारण भी बना।
व्यक्ति के जीवन में क्रोध तो पिता भी करते हैं, किन्तु अधिकतर उसमें भलाई अथवा शिक्षा छुपी होती है या उसे कुछ हानिकारक करने से रोकने के लिए। व्यक्ति अपने जीवन में अपने क्रोध को उचित ठहराने के लिए उसकी तुलना कभी कभी सात्विक पुरुषों के क्रोध से कर लेता है। जिनका जीवन तपस्या, योग व आध्यात्मिक शक्तियों को पूर्ण करने में बीतता है। आध्यात्मिक व्यक्तियों के स्वभाव में क्रोध का स्थान क्षणिक व अस्थाई होता है और अधिकतर किसी उद्देश्य की पूर्ती के लिए। उसकी तुलना उस व्यक्ति से नहीं की जा सकती जिसका जीवन क्रोध से ही संचालित हो।
क्रोध का यदि सही उद्देश्य व कारण है तो वो धर्म है। जैसे एक सैनिक युद्ध के समय अपने देश की रक्षा के लिए सीमा पर करता है। यदि क्रोध अकारण और निरुद्देश्य है तो वो जीवन को पतन की ओर ले जाता है। जो व्यक्ति अविवेकी, होता है वो महान व्यक्तियों के अवगुणों को ग्रहण करता है और सद्गुणों की उपेक्षा करता है। उनसे सीखने का प्रयत्न नहीं करता।
जल सदैव नीचे की ओर प्रवाहित होता है। यह जल का स्वाभाविक गुण है। आध्यात्मिक व्यक्ति अपने मन को जल भी भांति तरल तो रखते हैं किन्तु उसे पतन की ओर जाने से भी रोकते हैं। यहीं पर क्रोध-हीन होना उनके लिए आवश्यक होता है क्यूंकि क्रोध व्यक्ति के उत्थान में बाधक बनता है। क्रोध से मुक्त हो कर क्रोध को अपना आभूषण बनाना चाहिए, अपना जीवन नहीं।
अकारण क्रोध से कुछ प्राप्त नहीं होता और यदि इस बात का बोध हो जाए तो अपने जीवन के उन क्षणों को याद कर के पश्चाताप कर लेना चाहिए। पश्चाताप करने से क्रोध की व्यर्थता का बोध हो जाता है। पश्चाताप की भावना भविष्य में भी क्रोध को रोकने में सहायता करती है और यही आवश्यक भी है
क्रोध का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी है, जब व्यक्ति औरों की तुलना में अपने को सुखी देखना चाहता है। वो यह भूल जाता है कि सुख की कभी तुलना नहीं हो सकती। सुख केवल आंतरिक होता है, किन्तु व्यक्ति उसे ढूंढता बाहर है। वो चाहता है की जैसी उसकी इच्छा हो, वैसा ही हो। किन्तु यह कभी भी संभव नहीं होता, इसलिए उसका क्रोध समाप्त नहीं होता क्यूंकि उसे ऐसा प्रतीत होता है जैसे उसके साथ पक्षपात हो रहा हो। उसका कोई महत्व नहीं है। इन कारणों से व्यक्ति का क्रोध ही उसका अस्तित्व बन जाता है और वो अपने निराशा-जनित क्रोध को अपने आस-पास के लोगों पे निकालता है। किन्तु ऐसा करने से सुख की प्राप्ति तो फिर भी नहीं होती। सुख की कामना करने में बुराई नहीं होती। किन्तु क्रोध करने के स्थान पर, उसे प्राप्त करने के साधन पर विचार करना चाहिए।
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