सत्तर के दशक के अन्त की बात है। जब मैं रविवार के दिन गुरुजी का आशीर्वाद लेने गुडगाँव जाता था और शाम तक उस नये अविश्वस्नीय माहौल में, वहाँ रहता था।
गुरुजी स्थान के कमरे में बैठते थे और लोग आते रहते थे। एक…, दो….. दस…. सौ…. और… उससे भी ज्यादा। गुरुजी हमेशा आनन्दित मुद्रा में बैठते थे और बड़े आराम से लोगों के दुख दर्द, बुखार और दूसरी परेशानियाँ, फिर चाहे वे शारीरिक हों या मानसिक ….और फिर चाहे आध्यात्मिक क्यों न हों, उनका निवारण करते थे। उन्हें ऐसा करते देख, मैं इतना मग्न हो जाता था कि मेरे दिल और दिमाग में उस दिन के लिए और कोई काम नहीं आता था। दिन की समाप्ति पर जब सेवा सम्पन्न होती थी तब गुरुजी हमें वापिस घर जाने की अनुमति देते थे और साथ ही यह आदेश भी देते थे कि जितना ज्यादा से ज़्यादा हो सके मंत्र का जाप करो।
हमेशा ऐसा ही होता था। जब मैं सुबह घर से आता था तो मालूम नहीं होता था कि मैं कब वापिस आऊँगा। इसलिए खाना मैं अपने साथ अपने घर से ले जाता था जो दोपहर को मैं खा लेता था।
एक बार जब मैं कार में बैठा खाना खा रहा था कि अचानक गुरुजी ने मुझे देखा और आदेश दिया कि तुम अपने लिए खाना घर से साथ नहीं लाओगे और खाने के लिये माताजी से कहोगे। उसके बाद जब मुझे भूख लगती, मैं मातारानी जी को कहता और वह मुझे खाना दे देती जैसे बब्बा, रेनू तथा और बच्चों को देती थी।
एक बार जब मैं खाना खा रहा था तो मेरे एक दूसरे गुरू भाई ने मुझसे पूछा कि यह खाना तुमने कहाँ से लिया है…..!! मेरे बताने पर वह भी माताजी के पास चला गया और माताजी से खाना ले आया। हमें देखा-देखी और लोगों ने भी ऐसा ही करना शुरु कर दिया और वह समय भी आ गया जब दर्जनों लोग माताजी से खाना लेने पहुंचने लगे। सबसे खूबसूरत और दिल छू लेने वाली बात तो यह थी कि मातारानी जी, माँ की तरह बड़े प्यार से हम सब बच्चों को खिलाकर बहुत खुः श होती थी। मुझ जैसे साधारण व्यक्ति ने यह सोचा कि गुरुजी व माताजी दोनों काम करते हैं और बब्बा, रेनू, इला, नीटू व छुटकी उनके अपने भी बच्चे हैं। हम अच्छी तरह से जानते थे कि गुरुजी किसी से कुछ भी नहीं लेते थे। इसलिए हमें माताजी से खाना माँगना बड़ा अजीब लगता था। हो सकता है कि इस बारे में वे भी सोचते हों। वे भी गृहस्थी हैं, हमें समझना चाहिए कि जैसा हम कर रहे हैं, ऐसा ना करें।
मैं गुरुजी के पास गया और अपने अलग अंदाज में बोला, “गुरुजी देखो, आज मातारानी जी ने नमक का इतना बड़ा चम्मच, दाल के पतीले में डाला है यानि इतना बड़ा पतीला दाल का बनाया है।”
गुरुजी मेरी आँखों में देखते हुए बोले, “राज्जे, उस समय का इन्तजार कर जब तेरी माँ हाथ भर-भर के नमक, दाल के पतीलों में डाल कर इतनी सारी दाल बनायेगी।”
आज ऐसा ही होता है नमक की थैलियों की थैलियाँ डाल कर खाना बनाया जाता है और हजारों लोग खाना खाते हैं। इस बड़ी मात्रा में जो खाना बनता है उसे लंगर का नाम दिया गया है। जैसा कि आज से तीस साल पहले, गुरुजी ने कहा था।
वह हर दृष्टि से भविष्य को जानते थे। वे अपने आप में इस तरह से पूर्ण थे
….. जैसे स्वयं भगवान ।। प्रणाम।
…..हे गुरुदेव, हे घट-घट वासी ईश्वर, मैं आपको पूर्णरुप से समर्पित हूँ।