गुरुजी के पास लोग, अक्सर अपनी समस्याओं तथा दुख एवम् पीड़ा निवृति के लिये आते थे। किन्तु कभी-कभी कोई सन्त महात्मा लोग भी गुरूजी से आशीर्वाद लेने आ जाते थे। मुझे एक अद्भुत अनुभव हुआ। वैसे तो ऐसा अक्सर होता रहता था किन्तु एक बार ऐसा हुआ कि कुछ महात्मा आये और अपने शिष्यों के साथ सीधा गुरुजी के पास चले गये। ऐसा कभी नहीं हुआ कि गुरुजी खड़े हों या फिर शिष्यों के बीच बैठे हों तो उन्होंने शिष्यों के बीच कभी गुरुजी को ढूंढा हो। मैं नहीं जानता कि इसकी व्याख्या कैसे करूं। लेकिन ऐसा ही एक उदाहरण सामने आया है जो मैं नीचे लिख रहा हूँ : – गुड़गाँव स्थान पर सेवा चल रही थी। आये हुए लोगों को गुरुजी आशीर्वाद दे रहे थे और उन्हें अपने शिष्यों के पास लौंग व इलायची बनवाने के लिए भेज रहे थे। संयोगवश ऐसा हुआ कि स्थान के सामने वाला छोटा कमरा खाली था और वहाँ गुरुजी अपने पाँच-छ: शिष्यों को कुछ महत्वपूर्ण बातें बता रहे थे। तभी वहाँ महात्माओं का एक समूह जिन्होंने भगवे रंग का लबादा (साफा) औढ़ा हुआ था और आगे-आगे उनके गुरू जो काली वेशभूषा में थे, अन्दर आये। उनका गुरु हम सब के बीच में से होते हुए सीधा गुरजी के पास पहुंचा और अपने शिष्यों के साथ गुरुजी को साष्टांग प्रणाम किया। चौंकाने वाली अन्दर की बात तो यह थी कि कैसे उसने गुरुजी को पहचाना…!! किसी दूसरे को क्यों नहीं। जबकि हम सबने एक जैसा ही लिबास (पेन्ट-कमीज) पहना हुआ था। जो सांसारिक तौर पर एक जैसा लगता था। हो सकता है उसकी अन्तर दृष्टि उसे बता रही थी और या फिर गुरुजी के चेहरे का नूर, उसे अपनी ओर आकर्षित कर रहा था कि वह उनकी तरफ खिंचा हुआ सीधा चला गया। लेकिन यह एक महसूस करने वाली आश्चर्यजनक बात थी कि उन्होंने हममें से किसी की तरफ भी नहीं देखा और केवल गुरुजी की तरफ आनन्दित भाव से देखता रहा। इसी बीच उसके किसी शिष्य ने गुरूजी से कुछ पूछा। इससे पहले कि गुरूजी उसकी बात का जवाब देते, उसके गुरू ने उसे गुस्से से देखा और डाँटते हुए कहा, “तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई कि तुमने इनसे बात की?”
वह आगे बोले, “जानते हो कौन हैं ये…..?
ये साक्षात ‘शिव’ हैं। और उसने अपना सिर गुरुजी के पवित्र चरणों में झुका दिया और अपने शिष्यों से भी कहा, “सिर्फ माथा टेको, कोई सवाल नहीं।”
वह शिष्य जिसने सवाल पूछा था और उसके साथ-साथ उसके अन्य सभी शिष्य भी घबरा गये और उन सभी ने भी सिर झुका कर गुरुजी के पवित्र चरणों में प्रणाम किया। कुछ देर वहाँ रुकने के बाद वे उठे और बिना कुछ कहे वहाँ से चले गये। लेकिन ऐसा लग रहा था कि वे वहाँ से जाना नहीं चाहते थे।
जब मैं अपनी आँखें बन्द कर अपने दिमाग में उस दृश्य की कल्पना करता हूँ और उसे अपने व्यक्तिगत जीवन के साथ जोड़कर देखता हूँ तो यह मुझे विचारहीन बना देता है। तब मैं यह सोचता हूँ कि इस स्थिति तक पहुँचने के लिए गुरुजी के प्रति पूर्णतयाः समर्पित और शरणागत होना अति आवश्यक है। आशीर्वाद दीजिए..
हे गुरुदेव….।।