स्वयं की भावनाओं पर नियन्त्रण और अपनी इच्छाओं को सदैव सम्पूर्णतयाः वश में रखने वाले गुरुजी, अपने शिष्यों को बहुत प्यार करते थे। वे उन्हें भी अपने जैसा बनाना चाहते थे। यह एक अनूठा कार्य था लेकिन आसान नहीं था। वे रोजाना उनके व्यवहार, आदतों और उनकी कमियों को देखते तथा उन्हें दूर करने की योजना बनाते थे। उनका तरीका बिल्कुल अनोखा था। उसके लिए वे किसी एक शिष्य को चुनते, उसकी कमजोरी को निशाना बनाते हुए ठीक उस पर वार करते, जिसमें गलती होने की कोई सम्भावना नहीं होती थी।
इसी तरह की एक घटना सन् 1980 में हुई जो इससे पहले कभी नहीं सुनी होगी। इस बार गुरूजी ने अपने प्रारम्भिक शिष्य आर. सी. मल्होत्रा जी को चुना। उन्होने उनकी कमज़ोरी देखी कि उन्हें धन से बहुत लगाव था।
एक दिन गुरुजी ने उन्हें अपने कमरे में बुलाया और उन्हें लॉटरी का टिकट खरीद कर लाने के लिए कहा। इसके लिए उन्होंने टिकट के आखिरी दो अंक भी बताये। अतः मल्होत्रा जी तुरन्त केरल राज्य लॉटरी के ऑफिस में गये और बताये गये अन्तिम दो अंको वाली टिकट के लिए डीलर से कहा। डीलर ने उन्हें एक नई किताब में से उन दो अन्तिम अंको वाली टिकट निकाल कर दे दी। मल्होत्रा जी ने टिकट देखी, जो एक रुपये की थी, खरीदी और गुरुजी को बता दिया।
कुछ दिनों के बाद गुरुजी ने उन्हें बुलाया और कहा कि मुझे वह टिकट दिखाओ। आज उस लॉटरी का नतीज़ा आया है। गुरुजी ने अखबार उठाया और मल्होत्रा जी को टिकट पकड़ने तथा उसका नम्बर मिलाने को कहा। मल्हौत्रा जी खुः शी से उछले और बोले, “गुरुजी, हम लॉटरी का 50,000/- रुपये का दूसरा इनाम जीत गये हैं।” गुरुजी ने भी खुः शी का इजहार किया और उनके हाथ से टिकट ले ली, देखने के लिए।
टिकट अपने हाथ में लेने के बाद फाड़कर उसके दो हिस्से किये और एक हिस्सा मल्होत्रा जी को देते हुए बोले, “लो बेटा, यह आधी टिकट तुम्हारी है और आधी मेरी। क्योंकि इसे खरीदने के लिए, पचास-पचास पैसे हम दोनों ने दिये थे।”
मल्होत्रा जी को गुरुजी से ये उम्मीद नहीं थी। अतः वह जोर से चिल्लाये, “गुरुजी, ये आपने क्या किया…?” वे परेशान होकर दुबारा बोले, “आपने 50, 000/- रुपये पर पानी फेर दिया, गुरजी। इतनी बड़ी रकम और आपने उसे कूड़ेदान में फेंक दिया।”
अब गुरुजी की बारी थी। वे एकदम गम्भीर व शान्त थे। उन्होंने अपने शिष्य की आँखों में देखा और कहना शुरु किया, “मैंने तुम्हें इन्सान से भगवान बना दिया और तुम अभी तक वही संसारी इच्छाओं से घिरे हुए हो…?”
मल्होत्रा जी को अहसास हुआ और समझ में आ गया कि गुरुजी क्या चाहते हैं। यह है एक अनकहा तरीका, जो सिर्फ गुरुजी का है और वो ही इस तरह से कर सकते हैं। ऐसा प्रेक्टीकल उदहारण कि इतनी बड़ी रकम को क्षण भर में काट कर जीरो कर देना सिर्फ अपने शिष्य को उसकी इच्छाओं से ऊपर उठाने के लिए…..!!
आफरीन गुरुदेव…. आफरीन….!! मैं समझ सकता हूँ कि 1980 में वह 50,000/- रुपये की राशि तीस सालों में, अब तक कई गुना होकर उसकी कीमत कई लाखों में होती।
यही रुप है संसार के सर्वोच्च गुरू
…मेरे गुरुजी का।। असंख्य साष्टांग प्रणाम हैं
….हे मेरे महागुरुदेव