अस्सी के दशक के मध्य की बात है जब गुड़गाँव के सैक्टर-7 पर गुरुजी के दर्शन के लिये असंख्य लोगों की भीड़ चरम सीमा तक पहुंच गयी थी। रोजाना सुबह और शाम को स्थान के हॉल में तथा बाहर सड़क पर अनगिनत भक्तजन दर्शन हेतु एकत्रित होते थे। गुरुजी के लिये अपने ऑफिस जाना भी मुश्किल हो जाता था।
ऐसी स्थिति आ गई कि गुरूजी ने सुबह नौ बजे के बजाय सुबह छः बजे अपने ऑफिस जाना शुरु कर दिया। क्योंकि गुरुजी किसी को भी ‘ना’ नहीं कहते थे परन्तु उन्हें अपने ऑफिस भी समय पर पहुंचने में आनन्द आता था। इसलिए उन्होंने अपनी कार्य पद्धति में बदलाव करते हुए अपने ऑफिस जाने का समय बदल दिया।
गुरुजी ने कहा, “बेटा मुझे अपने लिये जो अन्न चाहिये उसके लिये मुझे अपने दफ्तर जाना जरूरी है।”
क्योंकि मैं किसी का अन्न नहीं खा सकता। खिला तो सकता हूँ लेकिन खा नहीं सकता।
अनुपलभ्य…!! अर्थात सभी की समझ से परे..!! ऐसा महान प्रभुत्व, जिन्हें लाखों लोगों ने भगवान के रुप में अपनाया और उनकी पूजा करते हैं और जिन्होंने संसारिक बन्धन में रहते हुए भी स्वयं को अनुशासित रखा।