यह घटना है, जब गुरुजी बंबई जा रहे थे और मैं उन्हें विदा करने के लिए स्टेशन गया था। शर्मा जी भी हमारे साथ आए थे। जब ट्रेन पांच मिनट में निकलने वाली थी। गुरुजी ने मुझसे पूछा, “क्या तुम मेरे साथ आना चाहते हो?” बेशक, मैं जाना चाहता था। लेकिन टिकट?
मैंने उनसे पूछा कि ट्रेन पांच मिनट में निकलने वाली है। टिकट उपलब्ध होने पर भी, मैं टिकट काउंटर पर नहीं जा पाऊंगा और ट्रेन पकड़ने के लिए समय पर वापस नहीं आऊंगा। गुरुजी ने मुझसे कहा कि बस जाओ और टिकट खरीद लो।
मैं टिकट काउंटर की ओर बढ़ने लगा और मैं मुश्किल से कुछ कदम ही चल पाता, जब एक आदमी मेरे पीछे से दौड़ता हुआ चिल्लाता हुआ आया – “टिकट ? क्या आपको टिकट चाहिए?” बेशक, मुझे टिकट चाहिए था। मैं रुका और उसकी तरफ देखा। उनके पास एक ब्लैंक टिकट था। उसने मुझसे मेरा नाम पूछा और जल्दी से टिकट पर भर दिया। उसने मुझे टिकट दिया और मैंने उसे इसके लिए भुगतान किया। सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि समझ में नहीं आया। मैं केवल इतना ही जनता हूँ की पाँच मिनट से भी कम समय में, मैं गुरुजी के साथ खड़ा था और मेरे हाथ में टिकट था।
जब मैंने फिर से चारों ओर देखा, तो मुझे वह व्यक्ति दिखाई नहीं दिया, जिसने मुझे टिकट दिया था। ऐसा लगा जैसे उसने मुझे टिकट दे दिया हो और गायब हो गया हो!