एक चमत्कार हुआ, जब एक बच्चा, जिसने गुरुजी को दिल से पुकारा और अपनी इच्छा व्यक्त की तो गुरुजी ने बिना समय लगाये उसी समय उसकी इच्छा पूर्ण कर दी। यह घटना मेरी बेटी बिन्दु ने मुझे सुनाई। जब वह सेन्ट थोमस स्कूल में पढ़ती थी और कुछ दिन पहले ही उसने उस स्कूल में प्रवेश लिया था।
“बहुत पुरानी बात है जब मैं किशोरावस्था में थी और हाई स्कूल में पढ़ती थी। मैंने अपना स्कूल बदला था और मेरे लिये नये स्कूल का वातावरण बिलकुल अलग सा था। पुराने स्कूल में मेरी बहनें तथा चचेरी बहनें, कुल मिलाकर सात बच्चे एक साथ पढ़ते थे। वहाँ के अध्यापक व अध्यापिकाएँ हम सभी से भली भाँति परिचित थे। हमारे सहपाठी भी हमारी जिन्दगी का एक हिस्सा थे क्योंकि हम साथ ही खेलने भी जाते थे।
नये स्कूल का वातावरण बड़ा अजीब और असमनजस भरा था। मुझे स्वयं भी समझ में नहीं आ रहा था कि मेरे नये स्कूल के अध्यापकगण व मेरे नये सहपाठी कैसे होंगे तथा मेरे प्रति उनका व्यवहार किस प्रकार का होगा……..!!
नये स्कूल में मेरा यह पहला सप्ताह था। मैंने स्कूल का नया सत्र (Session) शुरु होने के एक महीने बाद दाखिला लिया था।
एक सुबह जब मैं अपनी हिन्दी की क्लास में बैठी थी तभी वहाँ अचानक एक विचित्र घटना घटी। उस दिन हिन्दी की परीक्षा (Test) थी। परीक्षा के प्रश्नपत्र में कबीर का एक दोहा आया था….
धरती सब कागज करूं, लेखनी सब बनराय। सात समुद्र की मसि करूं, गुरू गुन लिखा ना जाय।। मुझे यह विस्तार से लिखना था कि कबीर इसमें क्या संदेश देना चाहते हैं।
तब तक मैंने स्कूल की नई किताबें नहीं खरीदी थी क्योंकि वह बाज़ार में उपलब्ध नहीं थी। अभी तक केवल श्यामपट (Black Board) पर ही देखकर पढ़ा था। अतः सोचने लगी कि अब मैं क्या करूं। मेरी बुद्धि ने लगभग जवाब दे दिया था और मेरे दिमाग में कुछ भी नहीं आ रहा था। मैं अंदाजा भी नहीं लगा पा रही थी कि कहाँ से शुरु करुं। अतः मैंने अपनी आँखें बन्द की और सच्चे दिल से बापू (गुरुजी) को याद किया और उनसे सहायता के लिए प्रार्थना की। मैंने उन्हें अपनी बन्द आँखों से देखा…. कि वे दया से परिपूर्ण, शुभचिन्तक और मन्त्रमुग्ध करने वाले रुप में आँखों में भरपूर प्यार लिए मुझे देखते हुए, लिखने का आदेश दे रहे थे। मैंने अपनी आँखें खोली, कलम (Pen) उठाई और लिखना शुरु कर दिया। शब्द कहाँ से आ रहे थे, मुझे नहीं मालूम और मैंने बिना कुछ सोचे समझे लिखना शुरु कर दिया। जो कुछ उन्होंने मुझे बताया, बस मैं लिखती चली गयी…../ मैंने गुरू और शिष्य के बीच के शक्तिशाली रिश्ते के बारे में लिखा कि किस तरह एक गुरु अपनी विलक्षण शक्ति के द्वारा अपने शिष्य को सन्मार्ग दिखलाता है कि वह गड्ढे में गिरने के बजाय सच्चाई के मार्ग पर चले और जिन्दगी के सार को अपनाये।
मैंने लिखा कि कैसे गुरु अनन्त (Limitless) हैं, कितना दयावान है, कितना उदार, कितना सहनशील, अपने भक्तों के प्रति कितना प्यार रखने वाला, उनकी दयालुता आकाश की तरह विशाल है। उसका वर्णन करना असम्भव है यदि पूरी पृथ्वी को कागज बना लें और सभी पेड़ो को कलम बना लें और सभी समुद्रो को स्याही (Ink) बना लें तो भी गुरु के गुणों का गुणगान करना सम्भव नहीं है।
मैं लिखती चली गयी और शब्द अपने आप बाहर आते गये। मेरी उत्तर-पत्रिका (Answer Sheet) के कई पन्ने लिखते-लिखते भर गये।
आखिर मैंने अपनी उत्तर-पत्रिका अध्यापिका को दे दी।
अगले दिन, कठिनाईयों से भरपूर दिन को बिताने के लिए हमेशा की तरह मैं स्कूल पहुंची। मैं किसी को नहीं जानती थी और सोचते हुए कि आज भी हज़ारों की भीड़ में मुझे एक बार फिर दोपहर का खाना अकेले ही खाना पडेगा।
लेकिन मुझे यह देख बहुत अचम्भा हुआ कि मेरे पास से गुजरने वाला हर एक बच्चा, मेरा अभिवादन करते हुए जा रहा था। मेरी अध्यापिकाओं की मुस्कान और ना ब्यान किये जाने वाला उत्साह, पूरे वातावरण में मौजूद था। अचानक आये इस बदलाव से मैं अचम्भित थी। मैंने घूमकर पीछे देखा तो मेरी उत्तर पत्रिका मेरी कक्षा (Classroom) के पिन बोर्ड पर लगी हुई थी…….!!
बस चन्द शब्दों में उनकी महानता और दयालुता का गुणगान करने पर, उपहार स्वरुप गुरुजी ने मुझे इतना कुछ दे दिया। सभी सहपाठियों और अध्यापिकाओं ने मुझे अपना लिया और अब मैं उनका एक हिस्सा बन गई थी। केवल कुछ शब्द ही गुरुजी के बारे में लिखे थे और इतना बड़ा सम्मान मिला, उपहार के रुप में…..!!
मैं नहीं जानती कि पाठक इस घटना को किस तरह से लेंगे…… लेकिन मुझे तो यह घटना ऐसे याद है जैसे कि यह अभी कुछ समय पहले ही घटित हुई हो।
सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि मैंने अपनी आँखें बन्द की और गुरुजी को दिल से सहायता के लिए पुकारा और बदले में मुझे ढ़ेरों कुछ मिल गया। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि इस अकेलेपन और दम घोटने वाले वातावरण (Lonely and Suffocating Environment) में, मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं किस तरह रह पाऊँगी……? मुझे बिना किसी अतिरिक्त परिश्रम के, सहपाठियों और अध्यापिकाओं के बीच एक नई पहचान मिली।”
इतने बड़े, इतने दयालु, हर समय मानने के लिये तैयार, द्रोपदी की आवाज़ पर प्रकट होने वाले भगवान कृष्ण की तरह….।।
…..ऐसे हैं मेरे बड़े मालिक।
माथा टिका ही रहे….
….हे गुरुदेव