गुरुजी नागपुर में जब अपने ऑफिश्यिल टूअर पर थे तो उन दिनों दूर संचार के लिए, केवल स्थाई टेलीफोन (Land Line Telephone) ही उपलब्ध था। यह उपकथा वहीं पर घटित एक अनोखे चमत्कार से सम्बन्धित है।
नागपुर में गुरुजी ने अपने और अपने स्टाफ के ठहरने के लिए जो स्थान लिया था, उसके एक कमरे को ऑफिस के कार्य के लिए इस्तेमाल किया जाता था। वह कमरा उनके ऑफिस रिकार्ड और अतिरिक्त सामान के लिए प्रयोग होता था। उसी कमरे में टेलीफोन भी लगा हुआ था। वह इमारत पुराने जमाने के हिसाब से बनी थी और उसकी खिड़कियों पर लोहे के सरिये, सुरक्षा के अभिप्राय से लगे हुए थे। लोहे के सरियों के बीच से लकड़ी की खिड़की को खोलकर कमरे के अन्दर देखा जा सकता था। स्टाफ का एक सदस्य रात को उस कमरे के दरवाजे पर ताला लगाकर जाता था और सुबह-सुबह आकर वो ही वह ताला खोलता था। यह उसका रोज का कार्य था। गुरूजी को रोज सुबह दिल्ली व अन्य दूसरी जगहों से शिष्यों के फोन आते थे और उनसे बात करने के बाद ही वे अपने ऑफिस के कार्य, भूमि निरीक्षण हेतु जाते थे। एक दिन वे ही स्टाफ का सदस्य जिसने रात को ऑफिस बन्द करने के बाद ताला लगाया था, अपनी सुबह की सैर करके जब देर से लौटा और उसने खिड़की से झाँक कर अन्दर देखा तो अचम्भित रह गया। उस समय गुरुजी बन्द कमरे में किसी से टेलीफोन पर बात करने में व्यस्त थे। उसने दरवाजे पर ताले को देखा वह भी ठीक प्रकार से लगा हुआ था और चाबियाँ भी उसी की जेब में थीं। वह आश्चर्य चकित होकर बाहर से ही चिल्लाता हुआ गुरुजी से बोला, “आप अन्दर कैसे गये….? चाबियाँ तो मेरे पास हैं….!!” गुरूजी ने खिड़की में से ही उसे देखा और कहा, “बेटा, टेलीफोन की घन्टी बज रही थी तो मैंने टेलीफोन उठा लिया
और बात करने लगा। वह स्टाफ मैम्बर बोला, “पर गुरुजी, बाहर से तो ताला लगा हुआ है, आप अन्दर गये कैसे….?” एक बच्चे जैसे भाव चेहरे पर लाते हुए गुरुजी बोले, “मैंने टेलीफोन की घन्टी सुनी और दरवाजे से टेलीफोन तक आ गया।” वह स्टाफ मैम्बर दुबारा बोला, “पर दरवाजे पर तो अभी तक ताला लगा हुआ है और चाबियाँ मेरे हाथ में हैं..!” उसे इसका कोई जवाब दिये बिना, गुरुजी ने बात का विषय बदलते हुए कहा, “ठीक है…! ठीक है…!! अब दरवाजा खोल, मुझे बाथरुम जाना है। वहाँ खड़े सभी लोग चकित रह गये किसी को भी अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि गुरुजी कमरे के अन्दर हैं और कमरे के दरवाजे पर बाहर से ताला लगा है। वो अन्दर गये तो गये कैसे…..!! परन्तु गुरुजी ने उनके हर सवाल को टाल दिया।
यह चमत्कार एक रहस्य बन गया, जो आज तक भी एक रहस्य ही है। जब भी कोई उनसे इस रहस्य के बारे में पूछता तो गुरूजी बस मुस्कुरा कर बात का विषय ही बदल देते।
मैं यह समझता हूँ कि उनकी मुस्कुराहट ही एक महत्वपूर्ण संदेश है, “बेवकूफों, तुम अभी तक अनभिज्ञ हो कि कौन हूँ मैं…. मुझसे बच्चों की तरह, ऐसे सवाल पूछ रहे हो…?”
यदि कोई साधारण व्यक्ति हो तो मेरा सवाल जायज़ है और यदि मैं उन्हें भगवान समझता हूँ तो मेरे इस सवाल का कोई मतलब ही नहीं उठता। क्योंकि भगवान के लिए किसी प्रकार का कोई बन्धन नहीं होता। गुरुजी मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरा मार्ग दर्शन कीजिए।
कृप्या गुरुजी, मुझे कसकर पकड़े रहिए क्योंकि मैं आपके अलावा और किसी को नहीं जानता। अपने आशीर्वादों की भरपूर वर्षा कीजिए ताकि मैं अपने जीवन के हर मोड़ पर, उन आशीर्वादों में स्नान करता रहूँ और भीगा ही रहूँ।