सत्तर के दशक के अन्त में गुरूजी ने गुड़गाँव स्थान पर लंगर सेवा शुरु की। बहुत से लोग, जो दूर दराज़ के गाँव अथवा शहरों में रहते थे, जिन्हें गुरुजी ने ठीक किया या बचाया था, उन लोगों को गुरुजी की अनुपस्थिति खलती थी। किन्तु गुरुजी के दर्शन करने हेतु, उनका हर उत्सव पर गुड़गाँव आना भी सम्भव नहीं हो पाता था। इसलिये वे, ‘गुरु-पूर्णिमा’ और ‘महा-शिवरात्रि’ पर आते, गुरुजी से मिलते और उनका आशीर्वाद प्राप्त करते थे।
धीरे-धीरे श्रद्धालुओं की संख्या सैंकड़ों से बढ़कर हज़ारों में पहुँच गयी। जो लोग बाहर से आते थे, वे उत्सव से कुछ दिन पहले ही आ जाते थे।
उनमे से कुछ तो एक से दो दिन तक रुकते थे लेकिन कुछ अथक प्रेमी दो से लेकर पन्द्रह दिनों तक रहकर आनन्द लेते थे। उनकी बढ़ती हुई संख्या को देखते हुए गुरूजी ने उनके लिये सु-व्यवस्थित ढंग से खाने और गुड़गांव में रहने का इन्तज़ाम करने का निर्णय लिया।
गुरुजी ने कुछ लोगों को एकत्र किया और उन्हें सामर्थ्य तथा जिम्मेदारी दी कि वे इस जरूरी काम के इन्तज़ाम को संभालें। इसके लिये गुरुजी ने कुछ नवयुवकों जिनमें बिटू, पप्पू सरदार, निक्कू तथा गग्गु शामिल थे, को इसकी जिम्मेदारी सौंपी। उन्होंने गुरुजी द्वारा दी गई इस जिम्मेदारी को पूर्ण रुप से निभाया और पिछले कई सालों से आज भी निभा रहे हैं।
गुरुजी ने आश्चर्यजनक ढंग से लंगर हेतु सामान जिसमें गेंहू का आटा, चावल, दालें तथा अन्य खाद्य साम्रगी एकत्र करने की योजना बनायी। इसके लिये उन्होंने शिष्यों के साथ एक गुप्त मीटिंग रखी तथा लंगर के कार्यक्रम के बारे में बात की।
उन्होंने कुछ शिष्यों को चुना और उन्हें आदेश दिया कि वे अपनी कमाई में से कुछ हिस्सा लंगर में दें ताकि आने वाले भक्तों के लिये मुफ्त लंगर सेवा चलाई जा सके।
वे लोग जिन्हें गुरूजी ने इसमें अंशदान की भागीदारी सौंपी थी, वे सभी भी बहुत उत्साहित थे। कोई भी इस शुभ कार्य में शामिल होने में देर नहीं करना चाहता था। यदि कोई इस पूर्व निधारित उत्सव के कार्य में देरी करता था तो गुरुजी उसे गुस्सा करते और चेतावनी देते कि दुबारा यदि यह गलती की तो तुम्हारा नाम इस लिस्ट से निकाल दिया जायेगा।
इसी प्रकार, लोगों के लिये ठहरने की व्यवस्था का इन्तज़ाम किया गया। जिसे गुरुजी द्वारा निमित चार सदस्यों के समूह (Group) ने उचित ढंग से किया। इसके लिये उन्होंने धर्मशालायें, कम्यूनिटी हॉल तथा कॉलोनी के लोगों की भी मद्द ली। यहाँ तक कि उन्होंने अपने घर के दरवाजे भी, बाहर से आये लोगों के लिये खोल दिये और अपने आपको इसके लिये धन्य समझा। इसके लिये इस टीम ने करीब दर्जन भर अन्य सेवादार भी नियुक्त किये। जो बिट्टू तथा बाकी तीनों सेवादारों के निर्देशानुसार कार्य करते थे। इस तरह सारा कार्य सु-व्यवस्थित ढंग से चल रहा था।
गुरुजी ने एक तीसरी टीम का गठन किया, जिसे उन्होंने लंगर बनाने का कार्यभार सम्भालने का अवसर प्रदान किया। जिसके लिये उन्होंने जालन्धर के मामाजी का चयन किया और उनका साथ देने के लिये डॉक्टर शंकर नारायण तथा बेली राम तक्खी को चुना। इन लोगों ने करीब दो सौ सेवादारों की टीम बनाई जिसमें अधिकतर पंजाब, हरियाणा तथा हिमाचल प्रदेश के भक्तजन थे। सभी सेवादार विभिन्न खण्ड़ों में बटे हुए थे लेकिन पूरी श्रद्धा के साथ अपनी सेवा कर रहे थे। इस कारण गुरुजी बहुत प्रसन्न थे।
गुरुजी रोज़ाना जब अपने कमरे (Chamber) में जाते, जो उन्होंने स्थान के पीछे शामियाना लगा कर बनाया हुआ था तो सभी सेवादार उनके अभिवादन के लिये मुस्कुराते हुए हाथ जोड़कर खड़े हो जाते थे। गुरुजी के वापिस जाने के बाद उनकी सेवा करने की गति और बढ़ जाती और उनके आशीर्वाद से, वे सब अपने आपको दुबारा उर्जा से तरोताजा महसूस करते। उनका सेवाकाल रोज़ाना कम से कम अट्ठारह से बीस घण्टे का होता था। जो निम्न प्रकार से बंटा हुआ था।
आटा गूंधना। गूंधे हुए आटे के पेड़े बनाना। आटे के पेड़े से पूरी बेलना। पूरी को घी में डीप फ्राई करना अर्थात तलना। बनी हुई पूरियों को बाँटने के लिये, एक बड़े बक्से में सम्भालकर रखना। सब्जियों को धोना तथा काटना। सब्जियों को बनाना। दालों को साफ करना तथा धोना। बड़े बर्तनों में दाल बनाना । दही रायता बनाना। पंडाल में दरी कारपेट बिछाना। लंगर परोसने के लिये पंक्तियाँ लगवाना। लंगर परोसने के लिये पत्तल डोने देना। जूठे पत्तल एकत्र करना। तथा चाय व पानी आदि की व्यवस्था करना।
सेवा करने का यह तरीका इतना अच्छा था कि इसमें करीब 1500 लोग एक साथ लंगर खा सकते थे।
एक अद्भुत इतिहास रचा गया। गुरुजी ने इसे सर्वोच्च प्राथमिकता तथा व्यक्तिगत रुचि लेते हुए, लंगर का भोजन-पत्र (Menu) तैयार किया। गुरुजी ने लंगर बनाने की विधि से सम्बन्धित सारी बातें मामा जी से की और कहा कि लंगर ऐसे बनाया जाये जैसे अति-विशिष्ट व्यक्तियों अर्थात (VIP’s) के लिये बनाया गया हो।
अनगिनत लोगों के लिये रोजाना अलग दालें व सब्जियाँ बनाई जाती थी। स्वयं गुरुजी को भी बूंदी का रायता बहुत पंसद था। गुरुजी ने मामाजी को विशेष आदेश दिया कि वह चने की दाल के बेसन से ही पिकोड़ियाँ बनायें और उसे दही में मिला कर रायता बनाया जाये। यदि उस दिन सोमवार का दिन आ जाता तो दही में उबले हुए आलू मिला कर रायता बनाया जाता था।
दिल्ली से अरुण कुमार जो गुरूजी का भक्त है उसने मुझसे कहा, “मैं गुरुजी के लंगर खिलाने के अंदाज को याद कर के कई बार रो चुका हूँ।”
लेकिन गुरूजी स्वयं लंगर में से नहीं खाते थे। वे तथा माता जी, सिर्फ मातारानी जी के हाथ से बनी खिचड़ी ही खाते थे जो वे अपने घर की रसोई से बना कर लाती थी। मातारानी जी हमेशा गुरुजी के खाने के बाद ही खाना खाती थी।
सन् 1990 में, एक दिन में करीब 50, 000 (पचास हजार) लोगों ने लंगर किया और उसके बाद महा-शिवरात्रि तथा गुरू-पूर्णिमा के दिनों में करीब पन्द्रह दिनों तक लगातार लंगर चलता रहा।
जिस दिन लंगर शुरु होता था, उस दिन बरसात जरुर आती थी और जिस दिन लंगर समाप्त होता था, उस दिन भी बरसात आती थी। यह गुरुजी का नियम था। एक बार मैंने गुरुजी से पूछा, “गुरूजी अगर बरसात नहीं आई तो क्या लंगर अनिश्चित दिनों तक ऐसे ही चलता रहेगा…?” तो गुरूजी ने कहा, “बेटा, यह कैसे हो सकता है…..?
….मैं गुरू हूँ बेटा।” और उसके बाद भी… सभी सालों में लंगर का प्रारम्भ और अन्त बरसात के
साथ ही हुआ। इसमें कोई बदलाव नहीं आया।
आज भी लंगर सीधे माताजी के नियन्त्रण में चलता है। हजारों लोग आज भी लंगर करते हैं लेकिन दिन कम कर दिये गये हैं। पहले पन्द्रह से सोलह दिनों तक जो सेवा होती थी, आज पाँच से छः दिन ही लंगर सेवा होती है। बेलीराम जी अपना शरीर त्याग कर गुरुजी के चरणों में चले गये हैं लेकिन मामाजी तथा डॉक्टर शंकर नारायण जी, आज भी अपनी टीम की अगुवाई करते हुए लंगर सेवा करते हैं। उन्होंने आज अपनी टीम में कुछ नये सेवादार जैसे देवराज, काकू और पप्पू पहाड़िया आदि को अपने साथ शामिल कर लिया है तथा लंगर सेवा उसी सुन्दर तरीके से आज भी जारी है। माताजी लंगर के लिये सामान और उसे बनवाने का कार्य स्वयं देखती हैं। सन् 1990 के बाद शिवरात्रि और गुरूपूर्णिमा के अलावा दो अतिरिक्त दिन भी, लंगर सेवा के लिए जोड़ दिये गये हैं। यह सेवा नीलकण्ठ धाम, जो नई दिल्ली में स्थित है, वहाँ पर होती है।
नीलकण्ठ धाम गुरुजी का समाधि स्थल है। यह आध्यात्मिक स्थान, बहुत महत्वपूर्ण है। इस स्थान पर गुरुजी के शरीर का अग्नि संस्कार किया गया था। यहाँ पर हजारों भक्तजन आते हैं और दो विशेष उत्सव जिन्हें हम ‘निर्वाण दिवस’ और ‘बंसत पंचमी’ के रुप में मनाते हैं, गुरू भक्त यहाँ आकर समाधि स्थल पर पुष्प अपर्ण करते हैं। इन महत्वपूर्ण दिनों के अलावा भी, सैकड़ो भक्तजन रोज़ाना आकर यहाँ माथा टेकते हैं और गुरुजी से अपनी इच्छाएं पूर्ण करने की प्रार्थना करते हैं। यह स्थान पॉवर सब स्टेशन के पीछे, नजफगढ़ रोड़ पर साँई बाबा के मंदिर से थोड़ा सा आगे है तथा राजौरी गार्डन से करीब दस किलोमीटर की दूरी पर है।
निर्वाण दिवस इस दिन हलवा और तले हुए काले चने का प्रसाद जो सुबह 11 बजे से शुरु होकर शाम के छः बजे तक आये भक्तजनों में बाँटा जाता है। इस दिन का पूरा कार्य स्वयं मातारानी जी सम्भालती हैं।
बंसत पंचमी इस दिन पूर्ण लंगर सेवा होती है जो सुबह 11 बजे से शुरु होकर शाम के छ: बजे तक होती है। स्वयं मातारानी जी के पूर्ण नियन्त्रण में यह सेवा होती है। इसमें पीले चावल का मीठा पुलाव अति-विशिष्ट है। इसके अलावा और दूसरे व्यंजन भी बनाये जाते हैं।
समाधि स्थल इस स्थान पर 9’x 9′ का सफेद मारबल से बना, गुरूजी का समाधि स्थल है। यह उस स्थान पर बनाया गया है, जहाँ गुरुजी के पवित्र शरीर का अग्नि संस्कार किया गया था। इसे समाधि कहते हैं और इस पूरे परांगण को नीलकण्ठ धाम के नाम से जाना जाता है।
एक सफेद मार्बल की गुरजी की मूर्ति के अलावा यहाँ शिव मन्दिर भी है। एक बहुत बड़ा हॉल कमरा जिसमें हजारों लोग बैठकर प्रार्थना कर सकते हैं, इसी धाम का एक हिस्सा है। हजारों भक्तजन यहाँ पुष्प अर्पण करते हैं, माथा टेकते हैं और अपनी इच्छाएं गुरुजी के समक्ष रखते हैं। उनकी सभी इच्छाऐं और जरुरतें पूर्ण होती हैं।
यह भी एक चमत्कार ही है कि लोग जब समाधि या गुरुजी की मूर्ति के सामने मन ही मन में अपनी कोई जरुरत या इच्छा रखते हैं तो गुरुजी उनकी इच्छा पूर्ण कर देते है। भक्तजन सुबह व शाम रोजाना प्रार्थना के लिए यहाँ आते हैं। यहाँ शान्ति और आध्यात्म का निवास है। यहाँ गुरुजी की दिव्य-आत्मा निवास करती है। हजारों गुरु भक्त, जो श्रद्ध और विश्वास के साथ अपने अदृश्य भगवान ‘गुरुजी’ के दर्शन करने आते हैं और अपना अनुभव सुनाते हैं। ऐसा उनका व्यक्तिगत अनुभव है।
मैं पाठकों से अनुरोध करता हूँ कि वे भी इस महा पवित्र और आध्यात्मिक स्थल पर जायें और गुरूजी की उपस्थिति का अनुभव करें।