एक बार गुरुजी संतलाल जी को लेकर मनीकरण गये। मनीकरण हिमाचल प्रदेश का एक पवित्र तीर्थ स्थल है। यहाँ पार्वती नदी, अपने अत्याधिक ठण्डे पानी के साथ बहती है और वहीं खौलते पानी के बहुत से झरने व तालाब भी हैं।
यह एक अद्भुत स्थान है। ऋषि लोग पूर्ण विश्वास के साथ बताते हैं कि माँ पार्वती के कानों का आभूषण (सुन्दर बालियाँ) नीचे पानी में गिर गईं थीं। भगवान शिव, माँ पार्वती को प्रसन्न करने के लिए वहाँ आये थे। उन्होंने माँ के आभूषण गहरे पानी से निकाल कर माँ को दिये और माँ बहुत प्रसन्न हुई। भगवान शिव ने इस जगह का नाम माँ के आभूषणों पर, मनी कर्ण रखा। गुरुजी अक्सर अपने शिष्यों को इस पवित्र स्थान पर माँ और भगवान शिव के आशीर्वाद के लिये लेकर आते रहते थे। ऐसे ही एक बार अपने कुछ शिष्यों को लेकर गुरुजी मनीकरण तीर्थ स्थल पर गये। अगले दिन गुरुजी, अपने शिष्य संतलाल जी को लेकर मनीकरण से करीब 20 किलोमीटर ऊपर, एक निर्जन स्थान पर पहुंचे। वहाँ एक विशाल झरना, ऊंचाई से नीचे गिर रहा था।
जिसका फैलाव (Span) काफी चौड़ा था। झरने के सामने रुक कर गुरुजी ने संतलाल जी को अपने पीछे आने का आदेश दिया। झरने के पीछे पहाड़ और झरने के बीच में एक जगह खड़े होकर गुरुजी ने जैसे ही कुछ उच्चारण किया, पहाड़ की एक शिला दूसरी तरफ सरक गई। सामने गुफा का एक द्वार नज़र आया और द्वार पर जटाओं से सुसज्जित एक महात्मा खड़ा था। उसकी अवस्था को देखकर बहुत आश्चर्य हो रहा था। उसकी उम्र का अनुमान लगाना कठिन था क्योंकि जटाओं के अलावा उसकी भौंहों के बाल इतने लम्बे थे कि आँखों को ढकते हुए गालों तक लटक रहे थे। ऐसा लग रहा था मानों वह गुरुजी की इन्तजार कर रहा हो। उसने गुरुजी का अभिनन्दन किया और उन्हें लेकर गुफा के अन्दर चला गया। संतलाल जी कहते हैं कि वो एक गुफा में एक स्थान पर खड़े होकर बड़े आश्चर्य से उन दोनों को बातें करते हुए देख रहे थे। कुछ समय रुकने के उपरान्त गुरुजी द्वार की तरफ बढ़े। महात्मा ने किसी मन्त्र का उच्चारण किया तो शिला फिर एक तरफ सरक गई और बाहर जाने के लिए द्वार बन गया। गुरुजी संतलाल जी को लेकर बाहर आ गये। बाहर निकलते समय उस महात्मा ने गुरुजी को प्रणाम किया और गुरुजी ने उसे आशीर्वाद दिया।
बाहर आकर गुरुजी ने संतलाल जी से पूछा—-
“तुमने उसे प्रणाम क्यों नहीं किया….?
संत लाल जी ने विनम्रता पूर्वक उत्तर दिया,
“जनाब, आपका ही हुक्म था कि कोई भी शिष्य, आपके अलावा किसी दूसरे के पाँव ना छुए। इसीलिए मैंने उनके पाँव छुए बिना ही प्रणाम कर लिया था।
गुरूजी ने कहा, “ बेटा, वह तुम्हारा बड़ा भाई है। 500 साल पहले मेरा शिष्य बना था। उसने ‘हठ-योग’ अपनाया और आज तक उसी शरीर में तपस्या कर रहा है। क्योंकि वह गुफा के बाहर नहीं आ सकता, इसीलिए पाँच साल में एक बार मुझे ही उससे मिलने कि लिए गुफा में जाना पड़ता है…”
परन्तु जो कुछ देखा, वह इतना अविश्वस्नीय था कि संतलाल जी को हज़म करना मुश्किल हो रहा था: –
एक तो कई मील की ऊपर की यात्रा। फिर एक बड़े झरने के सामने अचानक रुकना । फिर झरने के पीछे जाना और मन्त्र का उच्चारण करना और शिला का खिसक जाना, जैसा कि हमने बचपन में कहॉनियों में सुना था। पत्थर के पीछे गुफा के द्वार का होना। गुफा में महात्मा का उनका इन्तजार और स्वागत करना।
यह सब सिर्फ गुरुजी का स्मरण करके ही लिखा और पढ़ा जा सकता हैं अन्यथा यह बहुत अधिक अविश्वस्नीय सा लगता है। क्योंकि उपरोक्त, संतलाल जी के मुख से सुना है इसलिए संशय की कोई सम्भावना उत्पन्न ही नहीं होती।
हे महानतम् गुरुदेव, मैं आपके दिव्य रूप की प्रशंसा करते हुए बिना किसी थकान के आपके चरणों में लीन हो जाऊँ
…..ये मेरी प्रार्थना स्वीकार कीजिए।