एक दिन सुबह अपने शोरुम जाने से पहले उनके दर्शन करने के लिए मैंने गाड़ी गुरूजी के ऑफिस की तरफ मोड़ दी। गुरुजी को वहाँ पाकर मेरा मन गद्गद् हो गया। उस दिन महीने की पहली तारीख थी और ये दिन सभी सरकारी ऑफिसरों के वेतन का दिन होता है।
गुरुजी ने मुझे दर्शन दिये और मैं बहुत प्रसन्न हुआ। कुछ देर रुकने के उपरान्त, मैंने गुरुजी से दरियागंज शोरुम चलने की प्रार्थना की और वे चलने के लिए राजी हो गये।
जब हम कनॉट प्लेस से गुजर रहे थे तो रास्ते में मोहन सिंह पैलेस आया।
गुरुजी ने मुझसे पूछा, “राज्जे …..की पियेंगा पुत? अज तनख्वाह मिली ऐ।” (राज्जे ……तुम क्या पिओगे, बेटा? आज मुझे वेतन मिला है।)
मैंने कहा, “……गुरुजी, यहाँ लस्सी बड़ी अच्छी मिलती है।”
गुरुजी मुझे अपने साथ लेकर, वहाँ की मशहूर दुकान पर गये जो सिर्फ दूध से बना सामान ही बेचता था। उसे दो गिलास दही की लस्सी बनाने का ऑडर दिया।
गुरुजी ने अपनी पेन्ट की पिछली जेब से पर्स निकाला और उसमें से एक नोट निकालकर दुकानदार को दिया। वो भी क्या नज़ारा था। जो ना तो भुलाया जा सकता है और ना ही दोहराया जा सकता है।
पर्स से नोट निकालने का यह गुरुजी का एक असाधारण सलीका था। वह इसी तरह से पर्स निकालते थे और उसमें से नोट निकाल-निकाल कर उन लोगों को देते थे जो उनसे आशीर्वाद स्वरूप ‘बरकत’ के लिए पैसे मांगते थे और उसे अपने व्यापार में बढ़ोतरी के लिए लगाना चाहते थे। मैं इसका गवाह हूँ, जो मैंने महसूस किया और मैं कह सकता हूँ, उनके इस तरीके और आम लोगों के तरीकों में बहुत अन्तर है। हो सकता है मैं अपना नजरिया ठीक तरह से ना रख पाया हूँ, लेकिन उस तरीके में बहुत अंतर था।
बहुत लोग लस्सी पीते हैं लेकिन जो लस्सी मैंने पी उसका कोई जवाब नहीं। वह मेरे गुरुजी की मेहनत की कमाई की लस्सी थी। वो गुरुजी, जिन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी कोई भी उपहार या एक अन्न का दाना तक भी किसी से ना लिया हो। यहाँ तक कि अमेरिका और यूरोप के टुअर पर भी उन्होंने हमें, अपनी मेहनत की कमाई से ही खिलाया।
करीब एक डेढ महीने के लम्बे टुअर पर भी वे केवल ब्रेड-मक्खन या ब्रेड-जैम और चाय पर ही रहते थे। हालांकि लंदन, ब्लैकपूल, पैरिस, शिकागो, वॉशिंगटन, न्यूयार्क, लेक ताहो और लॉस एंजलिस इत्यादि में बहुत से परिवार हैं। वहाँ हम सब रुकते तो थे लेकिन खाना गुरुजी की कमाई से ही आता था।
…….हे भगवान, कितना अनुशासन और कितने सख्त नियम बनाये थे उन्होंने अपने लिए…..
एक सूई के नक्के की भी गुंजाईश नहीं थी इधर या उधर होने की।
वाह ………हे गुरुदेव
………ऐसे पैसों की ‘लस्सी ‘ पी हुई है मैंने…