गुड़गाँव के सैक्टर 7, के स्थान के बाहर सड़क पर गुरुजी के दर्शन के लिए, अनगिनत लोग लाइन में खड़े थे। स्थान के पीछे सड़क और फुटपाथ को अलग रखने के लिए शामियाने लगाये गये थे ताकि उसमें भक्तजन लाईन में अपने ‘सुपर लार्ड’ गुरुजी की एक झलक पाने के लिए इन्तज़ार कर सकें।
गुरूजी बाहर आते और स्थान के गेट से करीब पचास गज़ की दूरी तक लाईन में कुछ लोगों को आशीर्वाद देते और लोगों को आदेश देते कि वे स्थान पर जायें और वहाँ विस्तार से गुरूशिष्यों से बात करें जो स्थान के हॉल में उनकी सेवा के लिए बैठे हैं। बाकी के लोग सड़क के किनारे-किनारे करीब ढ़ाई किलोमीटर लम्बी लाईन में खड़े इन्तजार कर रहे होते थे।
एक बार गुरूजी ने अपने मुख्य शिष्य एफ. सी. शर्मा जी को आदेश दिया कि वे जहाँ तक भक्तजन लाईन में खड़े इन्तजार कर रहे हैं वहाँ जायें और उनकी परिक्रमा करके वापिस स्थान पर पहुंचे। (परिक्रमा का अर्थ है— स्थान से चलकर जाना और जहाँ तक लाईन समाप्त होती है वहाँ तक जाकर, वापिस आना ।)
यह कार्य करते हुए शिष्य को स्थान से लेकर लाईन के अन्त तक कतार में खड़े प्रत्येक भक्त की आँखों में देखते हुए चलकर जाना होता होता था और वहाँ से वापिस आना होता है। इसे ‘परिक्रमा’ कहते हैं। गुरुजी का हर शिष्य यह परिक्रमा करता था।
इस परिक्रमा करने का एक विशेष आध्यात्मिक कारण भी है जो ना कभी पढ़ा और ना ही सुना होगा। गुरुजी हमें आदेश देते थे कि वे पीड़ित लोग, इन्सान नहीं अपितु भगवान हैं। परिक्रमा का अर्थ है—- भगवान, जो मनुष्य रुप में, गुरजी के आशीर्वाद के लिए इन्तज़ार कर रहे हैं उनका ‘वरण’ करना।
ईश्वर द्वारा निर्धारित इस क्रिया से एक खास लक्ष्य की प्राप्ति की सम्भावना तो है, परन्तु यह प्राप्ति कोई शिष्य अकेला नहीं कर सकता। गुरू के आधीन होकर ही इस लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है।