एक सुबह एफ. सी. शर्मा जी की माताजी ने, जो एक पवित्र आत्मा थी, मार्ग दर्शन हेतु अपने पुत्र से पूछा कि आज गुरट-पूर्णिमा है, तो क्या उसने अपने गुरु की पूजा नहीं करनी…?
शर्मा जी को लगा जैसे उन्हें किसी ने नींद से जगाया हो। उन्होंने एक नारियल और एक रुमाल लिया और गुरुजी के ऑफिस पहुंच गए। गुरुजी और शर्मा जी एक ही ऑफिस में काम करते थे।
गुरुजी अपने कमरे में बैठे थे कि शर्मा जी उन्हें उठा कर कमरा नम्बर एक में ले गए.. वहाँ एक टेबल पड़ा था और शर्माजी ने गुरुजी को उस पर बैठने की प्रार्थना की। हाथ में एक थाली और पानी का गिलास लेकर जैसे ही उनके समक्ष पहुंचे, गुरूजी ने कहा, “तो तुझे पता है कि आज गुरु-पूजा है…!!
शर्माजी ने नारियल और रुमाल गुरुजी को समर्पित किया, पानी से गुरुजी के पवित्र चरण धोये, उन्हें पौंछा और फिर उस चरणामृत को पी लिया।
गुरुजी ने नारियल और रुमाल अपने पास रख लिया।
शर्माजी की इस क्रिया को देखकर दूसरे शिष्यों ने भी गुरु-पूजा आरम्भ कर दी।
शर्माजी ने एक और कमाल का कार्य किया। गुरुजी की बड़ी बहन, बिमला बहनजी के घर गए और गुरूजी के जन्म की तिथि पूछी। उन्होंने बताया कि उनका जन्म, बसंत पंचमी को हुआ था।
उस दिन शर्माजी गुडगाँव पहुंचे मिठाई का डिबा लेकर और माताजी को भेंट किया तथा प्रार्थना की, कि उन्हें प्रसाद दें क्यूंकि आज बहुत बड़ा दिन है। माताजी ने बड़े दिन का विवरण पूछा तो उन्होंने बिमला बहन जी के साथ हुई मुलाकात और इस दिन का महत्व बताया। सुनकर माताजी बहुत प्रसन्न हुईं और कहने लगी, “हाँ बेटा, वाकई आज बहुत बड़ा दिन है।”
गुरुजी तो टूअर पर थे अतः उन्होंने माताजी से भरपूर आशीर्वाद प्राप्त किया। लेकिन एक बात बहुत आवश्यक है, गुरुजी के शिष्यों और गुरुजी के भक्तजनों के लिए। बात का विवरण निम्नलिखित है : – एक बसंत पंचमी के दिन मैं गुरुजी के कमरे में उनके चरणों में बैठा था कि कोई आया और कहने लगा,
“जन्मदिन की बधाई हो गुरुजी” उसके जाने के बाद मैंने खुशी और आश्चर्य के साथ पूछा, “गुरुजी, आपका जन्मदिन है आज….?” गुरुजी ने मेरी ओर बड़े ही प्यार से देखा और कहा, “बेटा, शिवरात्रि है मेरा जन्मदिन… तुम लोगों को मेरा जन्मदिन, शिवरात्रि को मनाना है।” गुरुजी का समाधि-स्थल नीलकंठ-धाम कहलाता है। नजफगढ़ रोड, नयी दिल्ली पर स्थित इस सारे भवन को बसंत-पंचमी के दिन फूलों से सुसज्जित किया जाता है। समाधि और समाधि वाले कमरे को इस तरह सजाया जाता है कि देखते ही बनता है। इतना सुंदर कि ब्यान नहीं हो सकता। साथ ही बहुत बड़ा भंडारा होता है। सुबह से रात तक भंडारा यानि लंगर चलता है और मीठे पीले चावल का प्रसाद दिया जाता है सबको। …हजारों लोग गुरुजी की समाधि पर पुष्प चढ़ाते और माथा टेकते हैं और लंगर खा कर अपने भाग्य की सराहना करते हैं। लंगर का आनंद गुरु भक्तों के अलावा हजारों अन्य लोग भी लेते हैं। दृश्य देखने योग्य होता है. तकरीबन 3000 वर्ग फुट का बड़ा हाल सुबह से रात तक खचाखच भरा ही रहता है, लंगर खाने वालों के कारण। …हज़ार-पंद्रह सौ लोगों को पंक्तियों में बिठाकर एक साथ खाना खिलाया जाता है।
लोगों को बड़े ही प्रेम से बिठाया जाता है…
* फिर सेवादारों का एक गुप उनके आगे पत्त्तलें रखता जाता है…
* दूसरा ग्रुप सब्जी डालता जाता है…
* तीसरा गुप दही का रायता डालता जाता है…
* चौथा ग्रुप पूरियां वितरित करता जाता है… तो
* पाँचवां ग्रुप मीठे पीले चावल परोसता जाता है।
खाने के बाद सब लोग अपनी-अपनी पत्तलें उठाकर हाल से बाहर खड़े सेवादरों को दे देते हैं। हाल खाली होने के बाद सफाई सेवा दल फर्श को पूर्णरुप से साफ़ करने में जुट जाते हैं। सफाई कार्य सिर्फ 5 मिनट में पूरा हो जाता है। लोगों के बैठने और उठने के बीच कुल 15-20 मिनट का समय ही लगता है। फिर बाहर प्रतीक्षा में खड़े दूसरे लोगों को अंदर आने के लिएआमंत्रित किया और बिठाया जाता है और पहले की भांति फिर खाना परोसा जाता है। यह सिलसिला रात तक चलता ही रहता है। न जाने कितने हज़ार लोग इस भव्य लंगर को ग्रहण करते और आनंद लेते हैं। लंगर खाने वालों की संतुष्टि का अनुमान उनके चेहरों के भाव और उनकी निगाहों से साफ पता चलता है। उनका हृदय और मन आनंद से झूम रहे नज़र आते हैं। यह सिलसिला और इतने बड़े कार्यक्रम का प्रबंध और उसका भार पूर्णरुप से मातारानी (गुरुजी की अर्धागिनी) पर होता है। हजारों की संख्या में लोग और भक्तजन इस भव्य भोजन को ग्रहण करते हैं परन्तु न तो कोई धन का योगदान करता है और ना ही कोई दान देता है। …गुरुजी के आदेशानुसार धन का व्यय सिर्फ गुरुजी का परिवार ही करता है।
बड़े साल पहले गुरुजी ने कहा था कि लंगर का एक खास महत्व है। इसमें सिर्फ मेरा और मेरे परिवार का धन ही लग सकता है। …स्पष्ट है कि गुरुजी के शिष्य उनके परिवार में सम्मिलित हैं। करीब तीस वर्षों में एक भी व्यक्ति नहीं मिला जो यह कहे कि इस लंगर के अन्न के लिए उसने कोई धन दिया है। इस हाल के बाहर, खाना बनाने वालों का भी यही हाल होता है…
* कोई सब्जी बना रहा है तो
* कोई रायता बना रहा है…
* कोई आटा गूंद रहा है तो
* कोई पूरियां बेल रहा है…
* कोई पूरियां फ्राई कर रहा है तो
* कोई उन्हें टोकरों में भर-भर कर बगल में रखे 6-7 फुट बड़े कमरा नुमा चैम्बर में डालता जाता है। वहाँ से उठाकर उन्हें हाल में दे दिया जाता है, वितरण के लिए। बनाने और वितरण करने वाले सारे सेवादार अपने सिर को कपड़े से ढ़क कर सेवा करते हैं, ताकि उनके बाल खाने में न गिरें। एक अद्वितीय बात बताने योग्य है कि लंगर शुरु करने से पहले बड़े-बड़े बर्तन यानि कढ़ाईयों (फ्राईंग-वेसेल) और पतीलों को अच्छी तरह से साफ किया जाता है। यह पतीले इतने बड़े हैं कि साफ़ करने के लिए इनके अंदर घुसना पड़ता है। वजन में भी यह इतने भारी होते हैं कि तीन-चार लोग मिल कर ही उठा सकते हैं। तकरीबन पचास सेवादार इस कार्य के लिए कुछ दिन पहले आकर सफाई कार्य संपन्न करते हैं। लंगर समाप्त होने के बाद भी यह लोग सारे बर्तनों को अच्छे ढंग से साफ कर अगले पर्व के लिए संभाल कर रख देते हैं। इस कार्य को करने में दो अथवा तीन दिन लग जाते हैं। यह सेवादार हर वर्ष अबोहर (पंजाब) से आते हैं। इनका भक्ति-भाव सराहनीय है। इस सेवा के लिए ये सब सारा साल प्रतीक्षा करते हैं और इस अवसर के लिए अपने आप को धन्य मानते हैं। इतना बड़ा और सुंदर प्रबंध देखने के बाद लगता है कि कोई बहुत बड़ी कम्पनी का यह प्रबंध होगा। लेकिन यहाँ ऐसा कुछ नहीं ! तो फिर कौन है जो यह सब आर्गनाईज़ कर रहा है ! अवश्य ही कोई ईश्वरीय शक्ति है। उत्तर सिर्फ एक ही है —-
…गुरुजी।
अदृश्य रुप में, …हर जगह और …हर परिस्थिति में ।
केवल आप ही आप हैं–
…..हे परम पूज्य गुरु जी
….अपनी कृपा ऐसे ही बनाये रखना साहिब जी !!