जैसा कि हमारी सामाजिक परिस्थितियों में होता है, एक नवविवाहिता युवती को अपने ससुराल में निबाह करने के लिए कुछ परेशानियाँ झेलनी पड़ती हैं और ऐसे ही एक लड़की को विवाह के पश्चात् दिल्ली से हैदराबाद जाना पड़ा। निश्चित् ही कुछ परेशानियाँ भी आयीं। अपनी पीड़ाऐं वह चिट्ठियों के माध्यम से गुरुजी को लिखा करती थी। लेकिन कभी डाक से भेजती नहीं थी उन्हें। केवल उनके रुप के पीछे, अपने घर पर बने स्थान में ही रख दिया करती थी। साल में केवल दो बार, महा-शिवरात्रि और गुरु-पूर्णिमा पर ही आना होता था उसका। …और ऐसे ही एक बार जब उसका आना हुआ तो गुरुजी से अकेले में बात करने का मौका मिला। अपनी व्यथा जैसे ही उसने ब्यान करनी शुरु की, तो गुरुजी बोले, “हाँ, मैं सब जानता हूँ और उसे पहले ही ठीक कर चुका हूँ।” वह आश्चर्य चकित होकर बोली, “लेकिन गुरुजी आप कैसे जानते हैं…? मैंने तो किसी से इस बारे में नहीं कहा।”
इस पर गुरुजी बोले, “बेटा, जो चिट्ठयाँ तू अपने स्थान पर रखती है, उन्हें पढ़ने के लिए मुझे गुड़गाँव से हैदराबाद जाना पड़ता है।”
वाह –हे गुरुदेव…वाह!
….हे लीलाधारी, ….कैसी पहुंच है आपकी….!
बिलकुल भगवान जैसी।
आपका तो गुणगान करना भी सम्भव नहीं लगता प्रभु..!!
सिर्फ प्रणाम ही कर सकता हूँ मेरे साहिब–
स्वीकार कीजिए – स्वीकार कीजिए।