इस जीवन क्षेत्र में, जो कुछ भी होता है, लगता है कि पहली बार हो रहा है। लेकिन वह पहली बार नहीं बल्कि दोहराया जा रहा होता है। कहीं तो कई-कई बार तक दोहराया जा चुका होता है। तो कहा जा सकता है कि पिछले छूटे हुए अधूरे कार्य को पूरा करने के लिए फिर से शुरु होता है, दुबारा नई सी लगने वाली मुलाकातों का सिलसिला। किसी को मिलने पर लगता है कि पहली बार मिल रहे हैं, …हो सकता है कि पहले भी मिल चुके हों भूतकाल में। पिछला रिश्ता नये रिश्ते में बदल कर सामने आया हो, शरीर और स्थान
में आये समय के बदलाव के कारण। मगर आत्माएँ वोही होती हैं। पुरानी यादें बिलकुल खत्म हो जाती हैं।
…लेकिन कुछ ऊँची और पहुंची हुई आत्माएं जब मिलती हैं तो पुरानी यादें उभर आती हैं और फिर ‘पहचान’ होने लगती है, भूतकाल के मिलाप की। हालाँकि शरीर बदल चुका होता है मेरा ख्याल है इसी को कहते हैं… ‘पहचान’। परन्तु यह आम बात नहीं। चन्द लोग जिन पर गुरू की भरपूर कृपा हो, वो ही होते हैं इस उपलब्धि के हकदार…/ इसका मतलब है, मन और आत्मा की पुष्टि में किसी पंजीकरण की ज़रुरत नहीं, यह सुनिश्चित लगता है। यह बहुत दुर्लभ है और मात्र उन्हीं तक ही सीमित है जो ‘गुरु-कृपा’ के लायक हैं।
….लेकिन कैसे और कहाँ से आता है, यह विषय गुरुजी और केवल गुरूजी के अधिकार क्षेत्र में है। एकबार गुरूजी मुम्बई में थे। भक्तगण घर के ड्राईंगरुम में, सीढ़ियों में और यहाँ तक कि ड्राईव-वे पर भी खड़े थे और गुरुजी के दर्शन की प्रतीक्षा कर रहे थे। गुरुजी पहली मंजिल पर संदीप सेठी के कमरे में उसके बिस्तर पर बैठे थे और मैं खड़ा था, ताकि समय-समय पर उनके आदेश पर लोगों को उनकी कृपा के लिए उनके कमरे में भेज सकू। तभी एक संदेश आया कि एक विख्यात ‘महिला-सन्त’ गुरुजी के दर्शन की इच्छा से आईं हैं। करीब 10 मिनट (Minutes) के इन्तजार के बाद गुरुजी ने उसे बुलाया। वास्तव में मैं उस महिला को अच्छी तरह से जानता था। (उस महिला-सन्त के मुम्बई में बहुत से अनुयायी होने के नाते कई लोग प्रार्थना और आध्यात्मिक प्रवचन के लिए सुबह और शाम उसके आश्रम में आते थे।) उसे बुलाया गया।
वह अपने दो शिष्यों के साथ आयी। उसने गुरुजी के चरणों में प्रणाम किया। गुरुजी ने उसे आशीर्वाद दिया और बड़े प्यार से बिस्तर पर बैठने के लिए कहा। वह घबरा गयी और कहने लगी नहीं-नहीं, मेरी जगह यह है कहकर …ज़मीन पर बैठ गयी। मैं उसके जीवन से परिचित था। उसके इस तरह के दृष्टिकोण और व्यवहार की मुझे उम्मीद नहीं थी। वह अत्याधिक विनम् लग रही थी, ऐसा मैंने पहली बार देखा क्योंकि उसके आश्रम में मैंने सैंकड़ों लोगों को उसके आगे झुकते हुए देखा था। उसके इस रवैय्ये की मुझे आशा नहीं थी। उसके इस बदलाव को देखकर मैं सोचने पर विवश हूं कि अवश्य ही उसने गुरुजी को पहचान लिया था।
इतनी बड़ी ‘पहचान’……?? बिना किसी खास आत्मिक पहचान के और किसी पुराने रिश्ते के। वो महिला कभी इस तरह इतना नहीं झुक सकती थी जबकि उसके पाँव छूने वालों की संख्या सैंकडों में हो। या फिर हो सकता है कि गुरुजी ने अपनी खास कृपा की …और उसे वो दृष्टि दी कि वो उन्हें पहचान गयी।
……कैसे….?
— मैं जानना तो चाहता हूँ, लेकिन पता नहीं है।
मेरा नतमस्तक प्रणाम स्वीकार करें महानतम्…!