भानू ने बताया, वो मेरा 9वाँ जन्मदिन था और उसे मनाने के लिए हम गुरुजी के पास गुडगाँव जा रहे थे। यह परिवार के किसी भी सदस्य के जन्मदिन के अवसर पर गुरुजी का आशीर्वाद लेने तथा मिठाई बाँटने की नियमित प्रथा थी। गुड़गांव पहुंचकर हम एक मिठाई की दुकान पर रुके और मेरे पिताजी एक किलो मिल्क केक, जो उस समय की मशहूर मिठाई थी, ले आये। मिल्क केक के बड़े आकार के टुकड़े थे और वह एक किलो में करीब 18-20 टुकड़े ही आये।
जब हम स्थान पहुंचे तो गुरूजी अपने कमरे के बाहर स्टोर-रुम में करीब बीस-बाईस लोगों के साथ बैठे थे। जैसे ही हम पहुंचे तो उनके आशीर्वाद लेने से पहले मेरे पिताजी के मन में एक विचार आया (उस समय मैं छोटा था फिर भी मैंने यह महसूस किया) कि 20-22 लोग यहाँ पहले से बैठे हैं और हम भी तीन लोग हैं कुल मिलाकर हम सब 25 लोग होंगे और कुल 18 या 20 बर्फी के टुकडे ही हैं। तभी करीब 4-5 लोग और आ गये। गुरुजी आमतौर पर मेरे पिताजी को ‘धन्ना-सेठ’ के नाम से बुलाया करते थे। उन्होंने सोचा कि अब गुरुजी कहेंगे, “बड़ा सेठ बना फिरता है, और बेटे के जन्मदिन पे इतनी सी बर्फी लाया है।” ऐसा उन्होंने सोचा ही था, हुआ कुछ नहीं था। गुरुजी ने बड़े प्यार से मुझे आशीर्वाद दिया और मेरे पिताजी के हाथ से मिठाई का डिब्बा ले लिया। जो कुछ मेरे पिताजी के मन में चल रहा था, वह उन्होंने पहले ही देख लिया था। इस घटना के लिए शायद गुरुजी ने उसी दिन का समय चुना था कि मेरे पिताजी के दिमाग में तिलमात्र भी संदेह बाकी ना रह जाये कि उनका हर बात पर पूर्ण अधिकार है।
अब कुछ अद्भुत हुआ। वहाँ लगभग 25-30 लोग थे, जो मेरे पिताजी ने गिने थे और बर्फी के टुकड़े 18-20 से ज़्यादा नहीं थे, यह भी उन्होंने देख लिये थे। जब गुरुजी ने मिल्क केक के टुकड़े बाँटने शुरु किये तो उन्होंने किसी भी टुकड़े के दो हिस्से नहीं किये और वहाँ पर उपस्थित हर किसी को पूरा टुकड़ा देते चले गये। कमरे में उपस्थित सभी लोगों को बाँटने के बाद उन्होंने स्थान के बाकी लोगों को बुलाया और कहा कि भानू का जन्मदिन है, सभी लोग आओ और मिठाई खाओ।
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गुरुजी के पुकारने पर करीब 10-15 लोग जो स्थान पर उपस्थित थे या सेवा कर रहे थे आये और उन्होंने गुरुजी से बर्फी का प्रसाद लिया। सब मिलाकर करीब 40 या उससे भी अधिक लोगों ने उनसे बर्फी का प्रसाद लिया। सभी लोगों को मिठाई देने के बाद, डिबा उन्होंने मेरे पिताजी को वापिस दे दिया (जिसमें अभी भी तीन पीस बाकी बचे हुए थे) और कहा, “ले बेटा, ज्योति आज नहीं आई है, उसके लिए ले जा।” ज्योति मेरी बहन का नाम है जो उस दिन स्कूल के काम के कारण हमारे साथ नहीं आ पाई थी …लेकिन गुरूजी को वह भी भूली नहीं। वे सबका ध्यान रखते हैं। …खैर, बीस टुकड़े चालीस लोगों में बंट गए और इसके अलावा तीन टुकड़े बाकी भी बच गये। यहाँ गणित तो फेल है…! गणित विज्ञान का एक अंग है, पर पूर्ण ज्ञान नहीं। उन्होंने क्या किया और यह सब कैसे हुआ, यह प्रश्न गुरुजी को स्मरण करें तो बहुत छोटा सा प्रतीत होता है। वे ईश्वर-तुल्य हैं, ऐसा करना तो उनका स्वभाव है। संसार के लोगों को ईश्वर के समीप लाने की एक छोटी सी कला मात्र है। …लेकिन यह प्रत्यक्ष देखकर, मेरे पिता के हृदय की धड़कन रुक सी गयी। जैन धर्म के संस्कारों के कारण ऐसा हो ही नहीं सकता था। परन्तु यह तो उनके सामने हुआ। जैन धर्म के अनुसार, ‘केवल ज्ञान’ की प्राप्ति हो जाए तो मनुष्य कुछ भी कर सकता है यानि गुरूजी ने जो किया उससे प्रमाणित हो गया कि उन्हें ‘केवल ज्ञान’ की प्राप्ति हो चुकी है। भानू ने कहा : जैन धर्म में पले, बड़े हुए मेरे पिता जी,
…हालांकि उन्होंने गुरुजी के कई चमत्कार देख रखे थे परन्तु आज का चमत्कार इतना असम्भव था कि ब्यान से बाहर।
अतीत में जैन धर्म के अनुसार अच्छे कर्म करना, मूर्ति पूजा न करना इत्यादि का पालन करने वाले मेरे पिता, किसी को आत्म-समर्पण नहीं कर पाए थे। यहाँ आने के पश्चात् भी वे पूर्णरुप से सुरक्षित नहीं समझते थे। पर आज की घटना सुनिश्चित सी लगती थी। शायद गुरुजी ने आज का दिन उनके संशय समाप्त करने के लिए ही चुना हुआ था। सब लोग चले गए तो उन्होंने एक प्रश्न पूछा और सोचा कि इसका जवाब इतना आसान नहीं होगा। उन्होंने गुरुजी से पूछा, “गुरुजी, आजकल बहुत से अपने को गुरू कहलवाते हैं और संसार में बहुत से गुरू स्थान बने हुए हैं। मेरी शिक्षा और ज्ञान के अनुसार करीब 90% तथाकथित गुरु या तो नकली हैं या धोखेबाज। बाकी बचे 10%, वे ना तो नकली ही हैं और ना ही धोखेबाज़। लेकिन उसमें से 99.9% को स्वयं पूर्ण ज्ञान नहीं है, वे मेरा मार्गदर्शन क्या करेंगे…?” उन्होंने आगे कहा, “गुरुजी, मैंने यह भी सुना है, “गुरु बिना गति नहीं।” अपना लक्ष्य अर्थातः ‘मोक्ष’ प्राप्त करने हेतु मुझे अपने गुरु के समक्ष पूर्ण आत्म-समर्पण करना आवश्यक है, लेकिन यदि गुरू ही नकली या अधूरा ज्ञान लिए हुए है …और मैं उसे आत्म-समर्पण कर दूं तो मैं अपने आपको गुमराह और बर्बाद कर लूंगा। गुरुजी बड़े धैर्य से सुन रहे थे और मेरे पिताजी ने अपना सवाल जारी रखा, “गुरुजी, जब केवल 0.01% लोग ही अपने को गुरू कहलवाने के लायक हैं तो जरूरी हो जाता है कि उसको अपना गुरु धारण करने से पहले उसकी पूरी जाँच कर लूं क्योंकि मैं नहीं चाहता कि किसी अधूरे ज्ञान या नकली गुरू के प्रति पूर्ण आत्म-समर्पण करुं। …और यदि जाँच करने की यह योग्यता मुझ में है तो मैं स्वयं पहले से ही उससे अधिक ज्ञान रखता हूँ तो वह मेरा गुरू कैसे हो सकता है…?”
समय की छोटी सी अवधि में मेरे पिताजी ने इस संवेदनशील विषय पर सांसारिक ज्ञान की बात गुरुजी से कह दी।
गुरूजी ने क्या कहा, वह हम सबकी समझ के लिए महत्वपूर्ण है। उनका एक-एक शब्द जादुई है— तथा गुरू-शिष्य के सम्बन्धों को परिभाषित करता है। यह वो तरीका था जैसा मेरे पिताजी ने उस समय तक कभी सोचा भी नहीं था। उस समय समझ के मामले में, मैं बहुत छोटा था लेकिन उनके वे शब्द बचपन में ही मेरे हृदय में बैठ गये।
गुरुजी ने बहुत धैर्य, शान्ति तथा बहुत आसान और संक्षेप में उत्तर दिया,
“कई जन्म लेकर भी, गुरू को ढूंढा नहीं जा सकता। हर जन्म में, गुरू ही अपने शिष्य को ढूंढता है।” वे आगे बोले, “तू क्या सोचता है, तूने मुझे ढूंढा है…? …नहीं, मैंने ही तुझे ढूंढा है। जब सही समय आया, मैंने तुझे ढूंढ लिया और यहाँ तक ले आया।”
गुरुजी के पास आने से पहले मेरी माताजी को माइग्रेन की दर्द थी, जो उन्होंने ठीक कर दी। लगता है वह दर्द गुरुजी की ही एक रचना थी। मैं उस समस्या का धन्यवाद करता हूँ, जिसके कारण आज हम गुरुजी की शरण में हैं।
हे भगवान…!! विषय की क्या पूरी समझ है।
अद्भुत शब्द…! अद्भुत शैली…!!
भानू आगे बताते हैं— इसके बाद गुरुजी ने कहा कि कुछ चीजें ऐसी हैं जो शायद ही मैंने किसी को बतायी हों।
उन्होंने कहा, “पिछले 1000 सालों से मैं तेरे साथ हूँ।” तब उन्होंने मेरे पिताजी के पिछले 1000 सालों का इतिहास बता दिया। उनके इस समय के कई ‘जन्म’ और उनमें गुरुजी ने उन्हें कैसे ढूंढा। यहाँ तक बता दिया कि एक स्थान जहाँ पर मेरे पिताजी की फोटो पिछले सैंकडों सालों से टंगी हुई है।
वह दिन मेरे पिताजी की जिन्दगी में एक महत्वपूर्ण मोड़ था और मेरा भी।
हे मेरे महान प्रभु, आप क्या करते हो और कैसे करते हो, ये सब हमारी समझ से परे है। गुरूजी मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि हमेशा हमें अपनी शरण में रखें और अपनी कृपा बनाये रखें।
….प्रणाम गुरुजी