यह घटना गुरुजी के रुप और उनके असीम ज्ञान का विवरण है। ऐसा उदहारण शायद ही कहीं और मिले।
हर एक गुरु अपने शिष्य को ज्ञान देते हैं लेकिन इस तरह का ज्ञान जो गुरुजी ने मुझे चलती गाड़ी में दिया, शायद ही सुनने में आया हो कभी। वो ज्ञान एक शिष्य को समझाने के लिए नहीं, उसे झिंझोड़ने के लिए था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि लेश मात्र भी बुद्धि का प्रयोग बहुत बड़ी बाधा उत्पन्न कर सकता है। अतः बुद्धि का पैकअप अति आवश्यक था।
एक दिन कहीं जा रहे थे। गुरुजी साथ वाली सीट पर बैठे थे और मैं गाड़ी चला रहा था। रास्ते में कई चौराहे आते हैं जहाँ लाल बत्ती दिखने पर गाड़ी रोकनी पड़ती है। ऐसे ही एक चौराहे पर मैंने गाड़ी रोकी तो एक भिखारी ने मुझसे पैसे मांगे। मैंने डैश-बोर्ड पर से एक सिक्का उठाया और उसे देने ही वाला था कि गुरुजी ने आवाज़ दी, “राज्जे, हाथ नीचे कर और गाड़ी चला।” मैंने हल्का सा गुरुजी की तरफ देखा, सिक्का वापिस रखा और गाड़ी चलाने लगा। चौराहा लाँघ कर मैंने पूछा, “गुरुजी, आपने उस भिखारी को पैसे क्यों नहीं देने दिये…?” गुरुजी ने मेरी तरफ देखा और संजीदा स्वर से कहने लगे, “बेटा, अपने गुरु के होते हुए तू दाता बन रहा था। “गुरुजी, मुझसे कोई भूल हुई है क्या…? गुरुजी ने कहा, “अपने गुरु के साथ होते हुए भी तुम, समर्पित हो अपनी ‘मैं’ में…!! भिखारी ने पैसे मांगे तो क्या तुम्हारे गुरू ने नहीं देखा था…?” तुम्हारे मन में उसके लिए अगर करुणा या दया उत्पन्न हुई थी तो उसे अपने मन में रखते और प्रतीक्षा करते अपने गुरु के आदेश की। गुरु उसे अपने आप दे देता या फिर तुम्हें देने का आदेश देता।
…और दूसरी बात यह कि मेरे शिष्य से कोई कुछ माँगे तो हाथ से कुछ सिक्के देने की बजाये मुँह से दुआ दे दे, उसे इतना मिल जाएगा, जितना उसने सोचा भी न होगा। तृप्त हो जायेगा वो…। …लेकिन तुम उसे सिर्फ 25 पैसे का एक सिक्का ही दे रहे थे। यही है भूल । गुरू जब शिष्य के साथ हो तो शिष्य का धर्म है कि क्रिया शीलता से बच कर रहे और अपने गुरु को करते हुए देखे और आनन्द का अनुभव करे।।
गुरु के साथ शारीरिक रुप में रहने का अवसर बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। दिमाग लगाये बिना इस सुनहरी मौके व अवसर का भरपूर लाभ उठाये। सिर्फ आँखों और कानों का प्रयोग करे, दिमाग और मन का कभी नहीं। कारण… यह है कि इनके प्रयोग से बुद्धि काम करना शुरु कर देती है। लेकिन बुद्धि की सीमा निर्धारित है। बुद्धि की सीमा जहाँ समाप्त होती है, वहाँ से शुरु होता है गुरुजी का पहला निर्देश शब्द और फिर गुरुजी का ज्ञान, जिसकी सीमा है ही नहीं। गुरूजी ने फिर मेरी ओर देखा और कहने लगे, “राज्जे, उसे भिखारी किसने बनाया है?”
मैंने उत्तर दिया, “भगवान ने।”
“क्या भगवान का न्याय गलत है…!!”
मैंने कहा, “…कभी नहीं गुरुजी” गुरुजी ने कहा, “तू धन देकर उसे अमीर बनाना चाहता था…!! इससे यह सिद्ध हो जाता कि भगवान ने गलती की और तूने उसका सुधार कर दिया। यानि भगवान् के निर्णय के बिलकुल विरुद्ध ‘एक कोशिश’…? सर्वशक्तिमान, सारे संसार का मालिक जिसकी रचना में तू भी मात्र एक जीव है …अन्य जीवों की तरह।
…आज उसको चुनौती जैसा नहीं लगेगा…? सुनकर मैं दंग रह गया। ऐसा विचार तो कभी आया ही नहीं मेरे मन में। असमंजस में मैंने पूछा, “तो गुरुजी, क्या दया धर्म गलत है…?” गुरूजी ने कहा, “नहीं बेटा, संसारी लोगों के लिए दया धर्म, उत्तम धर्म है परन्तु गुरुशिष्य के लिए एक ही धर्म है, “हर समय अपने गुरु को निहारे और उससे आदेश लेकर उसका पालन करे।” कहाँ दया करनी और कहाँ शान्त रहना है, उसे गुरू ही निर्धारित करता है।
इतने में गुरूजी फिर कहने लगे, “बेटा, मैंने तुम्हें आध्यात्म का इतना बड़ा खज़ाना दिया हुआ है कि अगर तुम दिन-रात भी लगे रहो खर्च करने में, तो भी समाप्त नहीं हो सकता और तुम क्या देने लगे थे उस भिखारी को… …केवल एक बार में सिर्फ एक सिक्का…?
बस इतना सा…!!
वाह— गुरूजी वाह…!!
आप, आप ही हैं। आप जैसे सिर्फ आप ही हैं …साहिब जी।
जिस तरह आपने शिष्य धर्म और भक्त धर्म का अवलोचन पूर्ण विस्तार के साथ समझाया है, ऐसा तो कभी पता ही नहीं था, मालिक।
एक गुरु भक्त के लिए दया और दान करना ऊँचा धर्म है और उसी तरह गुरू शिष्य के लिए अपने गुरु को समर्पित होकर माँगने वाले पर दया करना नहीं …उसे दुआ देना धर्म है।
बारम्बार नतमस्तक प्रणाम—
हे गुरुओं के गुरू, ‘गुरुजी’