गुरूजी को अपने ऑफिस द्वारा दिये, भूमि-सर्वेक्षण के कार्य हेतु, दूर-दूर ऑफिशियल दौरों पर जाना पड़ता था। इस बार दौरा नागपुर का था। वे हमेशा, अपने ऑफिस का कार्य दिन में जल्द ही पूरा करके उसके बाद, वहाँ के लोगों की समस्याओं का समाधान करते थे। उन्हें बहुत खुः शी मिलती थी, जब उनके पास आये लोगों की आध्यात्मिक रुप से सेवा करते और उनकी समस्या दूर करते।
‘‘कमाल की बात है, गुरुजी को पूरी खबर होती थी कि आने वाला, क्या दु: ख लेकर आया है? ….और उन्हें ये भी पता होता था कि उन्होंने क्या करना है…..”
अविश्वस्नीय : लोगों को ठीक करने का वह क्या तरीका है? आज तक किसी को भी पता नहीं है।
किसी के माथे पर वे, सिर्फ हाथ रख देते तो किसी को बालों से पकड़ लेते तो किसी को को कहते— ‘तू जा मैं देख लूंगा, तेरा काम हो जाएगा।” अगर कोई, गम्भीर बीमारी लेकर उनके पास आता तो उसके माथे पर अपनी उंगली से (Strokes) लगा देते।
नागपुर में, एक दीप सेठी नाम का व्यक्ति जो वहाँ कुछ दिनों से आ रहा था और लोगों को पूर्णतः ठीक होते देख रहा था अपने घर से कुछ खाली बोतलें, लेकर आया। क्योंकि गुरुजी, जब लोगों को जल घर ले जाने के लिए कहते तो उन्हें बोतल की आवश्यकता होती और वे लोग फिर बोतल लाने के लिए परेशान होकर दौड़ते थे।
लोगों को जल के लिए खाली बोतल देते हुए, उसे ऐसा लगता था कि वह उनकी सेवा कर रहा है। उसके इस तरह, लोगों को बोतल लाकर देने के कार्य को गुरुजी देख रहे थे।
कुछ दिनों के बाद, गुरुजी ने दीप सेठी से पूछा- ‘तुम किस काम के लिए यहाँ आते हो?”
वह बोला— ”गुरुजी, मेरा एक छोटा भाई, जिसका नाम यश है, वह मुम्बई मे रहता है और वह बहुत बीमार है। उसका बहुत इलाज करवाया, लेकिन कुछ भी फायदा नहीं हुआ। डॉक्टरों ने भी हाथ खड़े कर दिये हैं।” उसने प्रार्थना की— ”गुरुजी, मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मेरे साथ मुम्बई चलो और मेरे भाई को बचा लो।’ गुरुजी उसके साथ मुम्बई जाने को तैयार हो गये और बोले— ”ठीक है, फिलहाल यहाँ जो काम है वो मैं निपटा लूं, फिर मैं तुम्हारे साथ चलूंगा।’ कुछ दिन बाद दीप सेठी, हवाई जहाज़ के दो टिकट ले आया। गुरजी बोले—- ‘मेरी हैसियत तो सिर्फ रेलवे के टिकट की ही है।” दीप सेठी ने बहुत प्रार्थना की, परन्तु गुरुजी ने वह टिकट नहीं ली और कहा—‘ ‘मैं तुम्हारे भाई को बचाने के लिए अपनी कमाई से खर्चा करुंगा।’ दीप सेठी बोला—”गुरुजी, यह मेरा काम है, आप अपना खर्चा क्यों करेंगे?” आखिर दीप ने गुरुजी को मना ही लिया। उसने गुरुजी से कहा– ‘ठीक है, आप रेलवे के टिकट के पैसे दे दीजिए लेकिन कृप्या आप हवाई जहाज़ से यात्रा कीजिए।” फ़्लाईट का समय शाम 8 : 30 बजे का था। तब तक गुरुजी अपनी सेवा समाप्त नहीं कर पाये और वह फ्लाईट चली गई। दूसरे दिन भी ठीक ऐसा ही हुआ और फ़्लाईट, फिर चली गई।
तीसरे दिन रात के 9 बजे, गुरुजी ने दीप से कहा—”मैं जाने के लिए एअरपोर्ट निकल रहा हूँ।” दीप बोला–‘ ‘गुरुजी, फ्लाईट तो वहाँ से आधा घण्टा पहले निकल चुकी होगी, इस समय एअरपोर्ट जाने का कोई फायदा नहीं है।” गुरूजी बड़े रोबीले अंदाज में बोले–,
“आज मुझे जाना है और मुझे लिए बगैर, वह फ़्लाईट भला कैसे उड़ सकती है?” ….चलो।।
वे दोनों एअरपोर्ट पहुंचे—- कमाल हो गया— फ़्लाईट तो वहीं थी, गुरुजी फ्लाईट में बैठे और फ्लाईट उड़ गई। (फ्लाईट के लेट उड़ान का कारण, उसका लेट आना था) गुरुजी, मुम्बई पहुंचे। दीप का एक भाई, गुरुजी व दीप को लेने एअरपोर्ट आया। गुरूजी दीप के घर (मुम्बई के एक उपनगरी ‘खार” जहाँ दीप का घर है।), जैसे ही पहुंचे, वे ‘फीएट’ कार से उतरे और सीधा उसके घर की तरफ चल दिये और तब तक नहीं रुके जब तक कि वे उस कमरे में नहीं पहुंच गये, जहाँ दीप का भाई बीमार था— आश्चर्य हैयह और चौकाने वाली बात थी कि गुरुजी यश सेठी और उसके कमरे को भी पहले से जानते थे। इसका मतलब, गुरूजी को हर चीज का हवाई जहाज़ पर बैठने से लेकर उसके बीमार भाई और उसके कमरे के बारे में पहले से पता था। जबकि उन्हें इस बारे में किसी ने कुछ भी नहीं बताया था। मैं कुछ कहने की हालत में नहीं था। स्पष्ट है कि ये किसी आम व्यक्ति के बस की बात नहीं थी। लेकिन गुरुजी एक आम व्यक्ति ही लग रहे थे, जैसा कि हमने देखा। मैं अपनी आँखों और दिमाग से क्या समझ सकता था? सिवाय इसके कि गुरूजी से प्रार्थना करुं कि गुरु जी, मुझे ऐसा ज्ञान और दृष्टि दो कि मैं आपकी इस लीला को समझने का सामर्थ्य पा सकूँ।
“…कि आप कौन हो?” चलो, अब आगे चलते हैं——–!! यश सेठी अपने बिस्तर पर सीधा लेटा हुआ था और उसके शरीर में किसी तरह की कोई हलचल नहीं थी। यहाँ तक कि कुछ खाने के लिए वह अपना मुँह भी नहीं खोल पा रहा था। लेकिन उसकी साँसों को चलाने के लिए उसके मुँह में केवल कुछ तरल पदार्थ ही डाले जा सकते थे। डॉक्टरों द्वारा दी गई जर्मन दवाईयों से भी जब कोई असर नहीं हुआ, तो उन्होंने भी अपने आप को असहाय बताया। गुरुजी, ने उसके माथे पर हाथ रखा, उन्होंने उसके लिए एक बोतल में जल बनाया और उससे कहा— ”विश्वास रखो, अब मैं तुम्हें खड़ा करुंगा।” गुरुजी वहाँ कुछ दिन रहे और यश के शरीर के अन्दर कुछ बदलाव आने शुरु हो गये। जब गुरुजी उसके पास आते तो वह मुस्कुरा कर उनका अभिवादन करता।
गुरुजी, एस. के. जैन साहब को, उसके पास छोड़ कर स्वयं नागपुर, अपने काम पर लौट गये।