गुरुजी, आम लोगों के बीच अक्सर बड़ी सादी ड्रेस जैसे लुंगी और कमीज और/या पैन्ट-कमीज में ही रहते थे। अस्सी के दशक में, गुरुजी के अनुयाईओं की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। संसारिक तौर पर पिता होने के नाते गुरुजी अब अपने बच्चों के लिए भी समय बहुत मुश्किल से निकाल पाते थे। इसके बावजूद उनके परिवार के सभी सदस्य बहुत सन्तुष्ट और खुः श थे और उनके बच्चे अपनी अपनी पढ़ाई में पूरा ध्यान देते थे।
गुरुजी अपने ऑफिस जाते, जहाँ वे सोयल सर्वे ऑफ इंडिया के एक विभाग में भू-वैज्ञानिक के पद पर कार्यरत थे। वे दूसरे अधिकारियों के समान अपना कार्य करते थे तथा अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के साथ अधिकतर हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियों में जाते। वहाँ की जमीन का निरीक्षण कर उसकी रिपोर्ट अपने विभाग को देते थे। उनकी अधीनस्थ टीम में, एक जीप का ड्राईवर, एक रसोईया, एक सॉयल डिगर (जमीन की खुदाई करने वाला) और एक ओवर सीयर होते थे।
वे दूर-दराज की पहाड़ियों में महीनों-महीनों रहकर अपना काम करते और अपने विभाग को उसकी रिपोर्ट देते। जैसा कि एक आम विभागीय कर्मचारी करता है। उनके द्वारा प्रेषित रिपोर्ट अधिक विश्वस्नीय और उपयोगी होती थी। जैसा कि उनके उच्च अधिकारी बताते हैं।
मैं भी उनके एक उच्च अधिकारी के सम्पर्क में आया, जिनका नाम डा. शंकर नारायण है। वह भू-विज्ञान के ज्ञाता हैं और उन्होंने इस विषय पर पुस्तकें भी लिखी हैं। वे भी, गुरुजी के प्रिय शिष्यों में से एक हैं और उन्हें गुरुजी ने कई आध्यात्मिक शक्तियाँ भी प्रदान की थी ताकि वे भी लोगों को ठीक कर सकें। वह अपने निवास स्थान, बैंगलुरु और गुड़गाँव स्थान पर लोगों की सेवा करते हैं। गुरुजी उन्हें अन्य शिष्यों की तरह ही ‘बड़े वीरवार’ पर सेवा के लिए बुलाते थे।
बड़ा वीरवार ‘बड़ा वीरवार’ हर महीने के चार वीरवारों में से एक होता है। हर अमावस्या के बाद, जो पहला वीरवार आता है, उसे ‘बड़ा वीरवार’ कहते हैं। इस दिन गुरुजी बहुत सवेरे ही उठ जाते और अपने शिष्यों को समझाते कि उन्हें आज किस तरह से सेवा करनी है। वे स्वयं स्थान के गेट पर खड़े हो जाते, जहाँ से लाईन में लोग आते और उन्हें प्रणाम करते और गुरुजी उनके माथे पर अपना हाथ रख कर आशीर्वाद देते। फिर उन्हें अपने शिष्यों के पास जाकर अपनी समस्याओं के बारे में बताने की हिदायत भी देते। उसके बाद वे लोग स्थान के मेन हॉल में आते और उनके शिष्यों से मिलते।
शिष्य उनकी समस्याओं को सुनते। लोगों की सेवा करने का यह एक अद्भुत तरीका था। वे अपने तीन शिष्यों को बैंच पर बैठाते थे। जो आने वाले लोगों की समस्याओं को सुनते थे। लोग उनके समक्ष लाईन लगा कर बैठ जाते थे।
कुछ शिष्य उन लोगों को देखते थे जिन्हें गुरुजी तुरन्त आराम के लिये, जैसे अर्थराईटिस यानि जोड़ों का दर्द, बुखार या डिपरेशन आदि से पीड़ित होते थे, उन्हें भेजते थे। ये शिष्य, गुरुजी के द्वारा बताये गये तरीके से कार्य करते थे। कभी-कभी आँखों में जल के छींटें मारना, माथे पर स्टोकस (Strokes) लगाना और कभी जोड़ों के दर्दो से परेशान व्यक्ति के जोड़ों को छूना आदि। मरीजों को 40% से 50% तक आराम तुरन्त मिल जाता था। यह सब करने का तरीका गुरुजी अपने शिष्यों को पहले से ही बता देते थे।
इसका नतीजा तुरन्त नज़र आता था। जो व्यक्ति डिपरेशन का शिकार होता, वह तुरन्त अपनी सामान्य अवस्था में आ जाता था। जो लोग तेज़ बुखार से पीड़ित होते या जोड़ों के दर्द से परेशान होते, उनके चेहरे पर भी तुरन्त मुस्कुराहट आ जाती और उनके भी मुख से यही शब्द निकलते..
“जय गुरुदेव, वाहे गुरू”
स्थान
गुडगाँव स्थान सूर्योनमुख दीवार पर शिव परिवार की मूर्ति जो चाँदी और ताँबे से बनी हुई है, के साथ और कई देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, जैसे माँ-गायत्री, माँ-काली, लक्ष्मी-सरस्वती-गणपति, सीता-राम-लक्ष्मण और हनुमान जी के रुप विराजमान हैं। गुरुजी इसे बुड्ढे बाबा का ‘देवो महेश्वरा’ का स्थान कहते हैं। सभी लोग यहाँ ‘मीठी फुल्लियों का प्रसाद’ चढ़ाते हैं
और अपने मन ही मन में अपनी समस्याऐं, उनके समक्ष रखते हैं। जो सादगी से अपनी समस्या उनके समक्ष रखता है, गुरूजी उसका समाधान कर देते हैं। माताजी सुबह-सुबह स्थान पर ज्योति व धूप जलाती हैं और बुड्ढे बाबा को प्रसाद अर्पण करती हैं। उसके पश्चात् उनके शिष्य और फिर समस्त भक्तगण, उन्हें प्रसाद अर्पण करते हैं।
प्रसाद
भुने हुए चावल, जिन पर चीनी चढ़ी होती है और जिन्हें मीठी फुल्लियाँ भी कहते है, उसका सवा रुपये का प्रसाद जो केवल बड़े वीरवार के दिन, सिर्फ गुड़गाँव स्थान पर ही चढ़ाया जाता है। अब तक मैंने सिर्फ एक ही बात सुनी थी कि प्रसाद मंदिर-गुरुद्वारों में चढ़ाया जाता है और अधिकतर प्रसाद का मतलब लडडू, बरफी, बूंदी या हलवा आदि होता है। जो करीब 100 रुपये से लेकर 1000 रुपये या अधिक का होता है। जबकि गुरुजी का प्रसाद मीठी फुल्लियाँ (चीनी चढ़े भुने हुए चावल) और वह भी सिर्फ सवा रुपये का। यह ‘भगवान शिव का प्रसाद’ है जिन्हे गुरुजी बुड्ढे बाबा, देवो महेशवरा या त्रिलोकीनाथ के नाम से भी सम्बोधित करते हैं।
बुडढे बाबा, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के ‘भगवान शिव’ स्वयं इन मीठी फुल्लियों का इन्तजार करते हैं। और गुरुजी से कहते हैं ‘जो कोई श्रद्धा भाव से बड़े वीरवार के दिन यह प्रसाद मुझे अपर्ण करेगा, मैं उसे सभी शारीरिक, मानसिक व आत्मिक रोगों से मुक्त कर दूंगा।”
सेवा
स्थान पर मीठी फुल्लियों का प्रसाद, गुरुजी को अपर्ण करने के बाद सभी भक्तजन गुरू शिष्यों के पास जाकर आशीर्वाद लेते और अपनी संसारिक, शारीरिक, मानसिक या आर्थिक समास्याऐं उन्हें बताते। गुरु शिष्य उन्हें ‘गुरुजी” द्वारा दी गई आध्यात्मिक शक्तियों का प्रयोग कर उनकी समास्याओं का समाधान कर देते। वे उन्हें जल तथा उनके द्वारा लाये गये लौंग, इलायची, काली मिर्च तथा और जो कुछ भी उनके लिए आवश्यक हो, अपने माथे से लगाकर उन्हें देते और उनका सेवन कैसे करना है, इसकी विधि भी उन्हें बताते।
जल
गुरुजी सुबह-सुबह एक बड़े से ड्रम में केसर डालकर जल बनाते थे और जाने कौन-कौन सी आध्यात्मिक शक्तियाँ, उसमें डाल देते थे। चाहे कैसी भी समस्या हो, हर समस्या का समाधान जल था। दिमागी परेशानी के कारण, आपे से बाहर मरीज भी इस जल के पीने से बड़ी आसानी से नियन्त्रण में आ जाते थे। वे इस जल को पीते ही एकदम अपनी सामान्य अवस्था में लौट आते थे। सभी भक्तजनों को लौंग, इलायची व काली मिर्च, जल के साथ सुबह खाली पेट और रात को सोते समय लेने के लिए कहा जाता था। लोग बड़े वीरवार को, पिछले महीने के बीते अच्छे दिनों के लिए धन्यवाद और आगे आने वाले महीने के लिए सुः ख शान्ति की प्रार्थना करते थे।
जब वे ठीक हो जाते तो और दूसरे लोगों को भी अपने साथ लेकर आते थे। वे अपनी बीमारियों और परेशानियों का अन्त कराने के लिए भी गुरुजी के पास बार-बार आते थे। बड़े वीरवार के दिन, गुरुजी के दर्शन के लिए लोग 10 से 12 घण्टों तक लाईन में खुः शी-खुः शी इन्तजार करते। परन्तु किसी के चेहरे पर कभी हताशा या फिर किसी प्रकार की थकान महसूस नहीं होती थी। विपरीत परिस्थितियों में भी वे शारीरिक व मानसिक रुप से स्वस्थ नजर आते थे। हर किसी आने वाले को वे चाय का प्रसाद जरुर देते थे। उन दिनों चालीस से पचास हजार लोग उनके पास आते, जिन्हें वे आशीर्वाद देते और उन्हें उनकी बीमारियों से मुक्त करते।
वे किसी से भी किसी तरह का कोई उपहार या नगद पैसा नहीं लेते थे। सभी उनके पास एक ही विचार लेकर आते कि मुझे गुरुजी के दर्शन करने हैं, उसके लिए उसे चाहे लम्बी-लम्बी कतारों में कितना ही इंतजार क्यों न करना पड़े। न ही किसी के माथे पर कोई शिकन होती थी और न ही कोई थकावट ही महसूस करता था। ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे वे फिर से जवान हो गये हों!!
गुरुजी से मैं जब-जब मिलने गया, मैंने हमेशा उन्हें एक अच्छे मूड़ में (प्रसन्न-चित) पाया। उनके चेहरे पर हमेशा मुस्कुराहट रहती थी। कभी भी मैंने, उन्हें खराब मूड़ में नही देखा। उनके मुस्कुराहट भरे लुभावने चेहरे के हाव भाव, देखते ही बनते थे। बहरहाल, ऐसा खूबसूरत अनुभव मैंने अपनी जिन्दगी में पहले कभी महसूस नहीं किया था। गुरूजी के रुप का यदि जिक्र करें तो—
- उनका लुभावना चेहरा,
- उनका लोगों को देखने का अंदाज,
- उनके बैठने का,
- उनके चलने का,
- उनके खड़े होने का अंदाज बिलकुल अलग था,
जो सिर्फ उन्हीं का था।
मैंने कभी किसी संत-महात्मा या किसी स्वामी जी को इतने प्रभावशाली अंदाज में पहले कभी नहीं देखा जैसा कि गुरुजी को। उनमें किसी भी प्रकार की किसी के साथ कोई भी समानता नहीं दिखी। गुरुजी बिलकुल अलग थे।
ऐसे तो गुरुजी ही हैं, …सिर्फ गुरुजी। और उनका कोई मुकाबला नहीं। जब-जब मैंने गुरुजी को किन्हीं संतों और आध्यात्म-ज्ञानियों से बात करते हुए सुना, उनके हर सवाल का जवाब उनके पास मौजूद होता था और उनकी हर शंकाओं का पूर्णतयाः समाधान करने में वे समर्थ थे। कुछ लोग गुरुजी के पास ऐसे-ऐसे सवाल लेकर आते, जिनका जवाब उनके जीवन में भी मिलना संभव न होता, उनको गुरुजी पूर्ण रुप से समझा कर जवाब देते और वे पूरी तरह से सन्तुष्ट व नि-उत्तर हो जाते। उनकी जिज्ञासा शांत हो जाती।
मैं उन्हें, यह सब करते हुए देखता रहता। कुछ लोग उनके पास शारीरिक, मानसिक, आर्थिक व सामाजिक समस्यायें लेकर आते और गुरुजी उन्हें बड़ी सरलता से समझा देते।
वह बहुत थोड़े शब्दों में ही, अपना संदेश उन्हे दे देते और उनकी समस्याओं का समाधान कर देते, जिससे वे लोग पूर्णतयाः सन्तुष्ट हो कर जाते।