जीवन की इस यात्रा में हर जीव अकेला ही चलता है। विगत कर्मों के लेखे जोखे को पूर्ण करने हेतु बहुत से रिश्ते नाते हर जन्म में जुड़ते तो हैं किन्तु जन्म समाप्त होते ही वे भी समाप्त हो जाते हैं और प्राणी अपनी आगे की यात्रा पर पुनः निकल पड़ता है; अकेला।
अकेले चलने का यह अर्थ कदापि नहीं है की अपने रिश्तों को तोड़ दिया जाए या उन्हें अनदेखा कर दिया जाये। जीवन के प्रत्येक रिश्ते को पूर्ण ईमानदारी से निभाओ। अपनी हर ज़िम्मेदारी को भी पूर्ण करो। इसीलिए तो विधाता ने उन रिश्तों को जोड़ा है। किन्तु बदले में वो भी अपना कर्तव्य निभाएंगे, यह उम्मीद मत रखो। इस मोह को त्यागना आवश्यक है। क्यूंकि जिस तरह हम अपनी यात्रा पर चल रहे हैं, हमारे से जुड़े सभी व्यक्ति अपनी अपनी यात्रा पर चल रहे हैं; अकेले; और कर्म करने के लिए सभी स्वतन्त्र हैं। कौन अपने जीवन में क्या निर्णय लेता है यह हम तय नहीं कर सकते। किन्तु हम अपने जीवन में क्या करते हैं, यह हम अवश्य तय कर सकते हैं।
जितना शीघ्र हम इस तथ्य से स्वयं को अवगत कराएँगे उतनी ही आगे की यात्रा सुगम होगी और हम अपने इस एकाकीपन की यात्रा को आरम्भ करने हेतु तत्पर होंगे।
यह सत्य है कि अच्छे कर्म करने से पुण्य की प्राप्ति होती है। प्राणी मात्र की सेवा करने से दुआओं की प्राप्ति होती है और यही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। फिर भी सिर्फ पुण्य प्राप्त करने से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। जिस तरह पाप करने के बाद दुःख भोगने के लिए फिर आना पड़ता है, उसी प्रकार पुण्य अर्जित करने के बाद सुख भोगने के लिए आना पड़ता है। बंधन तो दोनों ही हैं।
तो फिर मुक्ति का मार्ग क्या है? जब हम अपने सुकर्मों के परिणाम से भी मुक्त हो जाएं। यह कार्य बिना सद्गुरु की कृपा के संभव नहीं है।
अपने आत्मिक पथ पर आगे बढ़ने के लिए, सेवा प्रारम्भ तो करो किन्तु बिना किसी लक्ष्य के। बिना किसी हस्तक्षेप या नियंत्रण के। केवल दृष्टा बन के। केवल अनुभव करो। यदि कोई भूल हो, तो क्षमा मांगने में संकोच न करो। गुरु के संरक्षण में यह संभव है।
यदि जीवन में इस पथ पर अग्रसर हो गए, तब महसूस होगा, कि कैसे यह अस्तित्व हमें अपने अधिकार में ले कर हमें परिवर्तित करता है। नया जन्म देता है। इस जीवन की यात्रा का भी आनंद आएगा और इस जीवन को पार कर के आगे के पथ पर जाने का भय भी मिट जायेगा।