हमेशा की तरह, मैं अपने दरियागंज स्थित शोरुम में बैठा था कि फोन की घन्टी बजी, मैंने फोन उठाया, उधर से गुरुजी की आवाज आई—- ”मैं ईस्ट पटेल नगर अन्जू के घर हूँ।”
अन्जू, गुरुजी की बहुत चहेती बच्ची थी और हम सब शिष्य भी उसे बहुत प्यार करते थे। गुरुजी ने हम सब को किसी के घर हमारे ही फायदे के लिए कुछ भी खाने को मना कर रखा था। पहली बार मैंने देखा कि गुरुजी ने हम सब को, वहाँ पकौड़े खाने की इजाजत दी, जो अन्जू लेकर आई थी।
वाकई….. !!
हमारे लिए, यह एक असाधारण घटना थी। क्योंकि सालों से हमने सिर्फ ये ही देखा था कि गुरुजी, कहीं किसी के भी घर जाते, वहाँ वे आशीर्वादों की बारिश कर देते, लेकिन एक चाय के अलावा और किसी चीज को खाने की इजाजत नहीं देते थे।
मैंने गुरुजी से पूछा— ”गुरुजी, क्या आप मुम्बई जा रहे हैं?” मुझे श्री एफ. सी. शर्मा जी से पता चला है।
वे बोले— ”हाँ बेटा। ….क्या तुम भी चलोगे?” मेरे दिमाग में एकदम ये विचार आया कि ये मेरे लिए एक सुनहरा मौका है कि मुझे गुरुजी के साथ रात-दिन रुकना
और ट्रेन में भी साथ रहने का अवसर मिलेगा। ऐसा लग रहा था, जैसे मेरी चाँद पर उतरने की महत्वाकांशा पूरी हो गई हो।
मैंने, अपने आप को सम्भाला और गुरुजी से पूछा– ”क्या गुरुजी आपने मेरे लिए टिकट ले ली है?” गुरुजी ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया— “हम रेलवे स्टेशन से ले लेंगे।” तभी मुझे याद आया कि रेलवे के वातानुकूलित क्लास के टिकट कनॉट प्लेस के प्लाजा सिनेमा के पास पहले से ही एडवांस में बिक जाते हैं, रेलवे स्टेशन पर तो मिलते ही नहीं….!!
मैंने गुरुजी को बताया तो वे बोले—- ‘मिल जायेंगे पुत।”
जैसा कि, शुरु से मैं देखता आ रहा था कि उनके सामने, उनकी किसी भी बात को काटने की हिम्मत, किसी की भी नहीं होती थी, अतः मैं भी चुप हो गया।
मैं कार चला रहा था, बाँयी तरफ की सीट पर गुरुजी बैठे थे और पिछली सीट पर श्री एफ. सी. शर्मा जी। मैं लगातार यही सोचता चला जा रहा था कि जब रेलवे स्टेशन पर कोई टिकट काउन्टर ही नहीं है तो टिकट कहाँ से मिल जाऐगी?
खैर…, हम रेलवे स्टेशन पहुंचे और गुरूजी ने अपना बीफकेस उठाया तथा प्लेटफार्म की ओर निकल गये। मैंने भी कार को पार्क किया और कार की चाबियाँ व अपना ब्रीफकेस एफ. सी. शर्मा जी को दे दिया और कहा कि मेरे घर पहुंचा दें। इस पर उन्होंने कहा— “मैं गाड़ी चलाना नहीं जानता।” मेरे पास कुछ सोचने का समय न था, मैंने उनसे कहा— ”यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है और मैं तेजी से गुरुजी के पीछे चल पड़ा।
गुरुजी वेटिंग हॉल को लाँघते हुए, सीधा ट्रेन तक पहुंच गये। वे पलट कर मेरी तरफ मुड़े और बोले— ”अपना टिकट लेकर आओ और ट्रेन में बैठो” और स्वयं ट्रेन में चढ़ गये।
मैं सोचने लगा कि स्टेशन पर जब कोई टिकट का कॉउन्टर ही नहीं है, तो टिकट कहाँ से लाऊँ…? मैं भौंचक्का सा होकर चुपचाप प्लेटफार्म पर खड़ा का खड़ा ही रह गया।
जब गुरुजी ट्रेन के अन्दर चले गये, तभी मेरे पीछे से अचानक किसी ने मेरे कंधे को छुआ। मैंने पीछे मुड़कर देखा कि एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति, जिसके छोटे-छोटे बाल थे और उसने भूरे रंग का कोट पहना हुआ था, मुझसे पूछ रहा था ”क्या तुम्हें मुम्बई जाना है!!”
मैंने तुरन्त हाँ कहा और उसने मुझसे पैसे माँगे। मैंने उसे 200 रुपये दिये और उसने अपनी जेब से एक खाली टिकट निकाला और मेरा नाम पूछकर उस पर लिखा और सीट नम्बर 65 भी लिखकर मुझे दे दिया।
तब तक, ट्रेन चल पड़ी थी और मैं दौड़कर उसमें चढ़ गया। ट्रेन में चढ़ने के तुरन्त बाद, मैंने प्लेटफार्म की और मुड़कर देखा, मुझे वह व्यक्ति वहाँ कहीं नजर नहीं आया। मुझे उससे टिकट लेने तथा ट्रेन में चढ़ने और वापिस प्लेटफार्म पर देखने में, मुश्किल से 10 सैकण्ड़ का समय भी नहीं लगा होगा और ये बिलकुल भी सम्भव नहीं कि कोई इतनी सी देर में ही, वहाँ से गायब हो सके। लेकिन मैं उसे दुबारा नहीं देख सका।
मैं गुरुजी के पास पहुंचा और उनसे पूछा— ”गुरुजी, वह व्यक्ति कौन था?” गुरुजी मेरी तरफ देखकर बोले— ”…..तुमने उससे टिकट खरीदा है, मैं क्या बताऊँ कि वह कौन था?”
मैंने देखा कि गुरुजी मेरी तरफ देखकर मुस्कुरा रहे थे। ‘‘पर गुरुजी, मैंने ऐसे कभी टिकट नहीं खरीदा। ऐसा लग रहा था मानों जैसे वह व्यक्ति केवल मुझे टिकट देने ही आया था” मैं फिर जिज्ञासावश बोला— ”प्लीज……गुरुजी, बताओ ना कौन था वह व्यक्ति? गुरूजी मेरी ये जिज्ञासा शांत करो, प्लीज बताओ ना.. ये आपने कैसे किया? मैं पीछे मुड़कर सोचता हूँ, तो निम्न विचार आते हैं : –
- गुरुजी, अपने साथ मुझे, मुम्बई चलने के लिए कहते हैं।
- मैं उनसे, अतिरिक्त टिकट के बारे में, पूछता हूँ। गुरुजी स्टेशन से टिकट लेने को कहते हैं।
- एक अपरिचित व्यक्ति आता है
- वह अपने आप मुझे टिकट देता है।
- वह क्षणों में ही प्लेटफार्म से गायब हो जाता है।
सोचने वाली बात सिर्फ यह है: बस गुरुजी जानते थे कि मुझे उनके साथ जाना है और उन्होंने ही इसकी व्यवस्था भी कर दी।