दोपहर का समय था और मैं गुरुजी के दर्शन करने गुड़गाँव गया। गुरुजी अपने कमरे में थे और लाईन में खड़े हुए लोगों को आशीर्वाद दे रहे थे। उन्हें प्रणाम करने के बाद मैं उनके पलंग की दूसरी तरफ चरणों के पास बैठ गया। गुरुजी उस समय बाँयी करवट लेकर आधे लेटे हुए थे तथा आने वाले लोगों को आशीर्वाद देने और उनसे बातें करने में पूर्णतयाः व्यस्त थे। जहाँ पर मैं बैठा हुआ था वहाँ पलंग पर उन्होंने अपनी टाँगें करीब-करीब आधी मोड़ रखी थीं।
जब मैंने गुरुजी के तेजपूर्ण चेहरे की तरफ देखा उस समय वे लोगों से बातें करने में एकाग्रचित थे। मैं उनके चरणों की तरफ मुड़ा। उन्होंने पैन्ट पहनी हुई थी। मेरा ध्यान उनके चरणों की तरफ चला गया और मैंने उन्हें दबाना शुरु कर दिया ।
चरणों की सेवा करते-करते मैंने देखा कि उनका ध्यान पूर्णतयाः लोगों में था। इतने में मेरा ध्यान उनके चरणों की तरफ आकर्षित होता चला गया। मैंने महसूस किया कि वे बहुत सुन्दर हैं, शायद उनका डिज़ाईन ‘देवो महेश्वरा’ ने खुद ही बनाया होगा। मैंने उनके चरणों की बनावट को बडे ध्यान से देखना शुरु कर दिया।
उनके चरण बहुत ही सुन्दर तथा मनमोहक प्रतीत हो रहे थे। कोई हड्डी नज़र नहीं आ रही थी।
उनके पैरों का नीचे का घुमाव, चरणों के ऊपरी हिस्से की त्वचा का रंग, उनकी उंगलियों का डिजाईन, उनकी छोटी उंगली से लेकर, अंगूठे तक पूर्ण तार तम्यता।
जब मैं यह सब र्निबाध्य रुप से देख रहा था तो मैं उन पर इतना मुग्ध हो गया कि मेरे मन में उन्हें चूमने का विचार आ गया।
मैंने गुरुजी की तरफ देखा, वे अपने भक्तों के साथ बातों में लीन थे। जो चरण मेरे नज़दीक था उसे हल्के से मैंने चूम लिया।
मैंने ऊपर देखा और मुझे लगा कि उन्होंने ध्यान नहीं दिया। मेरे अन्दर जिज्ञासा उत्पन्न हुई और विचार आया कि अपने पूर्ण सन्तोष के लिये क्यों न थोड़ा जोर से दुबारा चूम लूँ और मैंने वैसा ही किया।
वाह…… इस बार भी उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। मैं बहुत खुः श हुआ फिर मैंने पूरे प्रेशर से एक बार फिर चरणों को चूम लिया। बड़ा आनन्द आया। लेकिन मैं इतना भावुक हो गया कि अपने आपको भूल कर मैंने पाँव को दाँतों से काट लिया। अब गुरुजी का ध्यान मेरी तरफ आकर्षित हुआ और डाँट कर बोले, “अरे ये तू क्या कर रहा है..?” अब मैं होश में आया और बोला, कुछ नहीं… कुछ नही… गुरुजी, आप करिये बातें लोगों के साथ और गुरुजी फिर एक बार अपने भक्तों में लीन हो गये और मैं फिर से उनके पाँव दबाने लगा। लेकिन इस बार कोई शरारत नहीं। मेरे प्रेम और आनन्द की अवस्था ऐसी थी, जिसका मैं ब्यान नहीं कर सकता।
ऊपर लिखी घटना का सम्बन्ध संसारिक है या आध्यात्मिक, मैं नहीं जानता। लेकिन गुरुजी की उस बात से सम्बन्धित जरुर है, जो मुझे याद आ रही है। कई साल पहले जब गुरुजी ने मुझे किताबें पढ़ने, मन्दिरों में जाने और ध्यान इत्यादि लगाने से मना किया था और मैंने पूछा था कि गुरूजी फिर मैं क्या करूं..? तो उन्होंने कहा था कि मेरी दी हुई शक्तियों के प्रयोग से लोगों की सेवा कर और मुझसे प्रेम कर। बाकी सब मैं कर लूँगा…
तो क्या, कहीं ये प्रेम तो नहीं था…?
आज तक वे, स्वयं ही सब कुछ कर रहे हैं। उन्होंने मुझे कभी कुछ करने ही नहीं दिया। लोग आते हैं, अपने दुख मुझे बताते हैं, मुझसे कुछ माँगते हैं और मैं ‘हाँ’ कर देता हूँ। उनके सब काम आज तक गुरुजी ही करते आ रहे हैं।
हर काम चाहे तो वह मेरे परिवार से सम्बन्ध रखता हो या मेरे व्यापार से, वे स्वयं ही कर्ता हैं। मेरे आध्यात्मिक जीवन के बारे में, मेरी सेवा या भक्ति के बारे में भी वे ही कर्ता हैं। इससे ज़्यादा मैं कुछ नहीं जानता। मैं तो बस इतना ही जानता हूं कि गुरुजी सम्पूर्ण ज्ञाता हैं और उन्होंने मुझे अपने हिसाब से डिज़ाइन किया तथा बनाया है। मैं बस उनकी ही कृपां का पात्र हूँ। और… जैसा गुरूजी मुझसे कहा करते थे कि मैं बेवकूफ नम्बर 1914 हूँ मैं उनका वही हूँ। बड़ा भाग्यशाली महसूस करता हूँ अपने आप को।
यह अधिकार सिर्फ गुरूजी के ही पास है कि किसे चुनना है और किस से कितना और कैसा प्यार करवाना है। मेरे पास तो यह अधिकार है नहीं…..।।
वे गुरुजी हैं और
उनको पूर्ण रुप से जान पाना असम्भव है। उनके चरण कमलों में साष्टाँग प्रणाम है।
आप अपनी असीम कृपा द्वारा हमेशा आशीर्वादों की वर्षा करते रहना, हे गुरुदेव…