सन् 1975 की बात हैं जब एक सरकारी अधिकारी (Government Officer) ने अपनी व्यक्तिगत समस्या अपने सहयोगी के सामने रखी। मि. श्रीवास्तव ने मि. दत्ता से, अपने दुख का कारण बताया। वे दोनों ही सरकारी विभाग में, उच्च अधिकारी के पदों पर दिल्ली में कार्यरत थे। मि. श्रीवास्तव ने कहा, “मेरी बहन की एक लड़की है जो कानपुर में रहती है। वह अल्सर तथा जोड़ों की दर्द से पिछले दस सालों से बहुत परेशान है। उन्होंने बहुत से डॉक्टर व अस्पतालों में उसका इलाज़ कराया, लेकिन सब बेकार……………”
“….हमारा पूरा परिवार, सिर्फ एक ही उद्देश्य को लेकर जी रहा है कि किसी तरह वह लड़की ठीक हो जाये।”
मि. दत्ता ने कहा कि उनकी मिनिस्ट्री में एक ऑफिसर हैं। उन्होंने बहुत से मरीजों को ठीक किया है और उसने मि. श्रीवास्तव को आश्वासन दिया कि वे उनकी भांजी के लिये उनसे बात करेंगे।
वह ऑफिसर कोई और नहीं, गुरुजी ही थे। मि. दत्ता, गुरुजी से मिले और उस लड़की को ठीक करने की प्रार्थना की। गुरुजी ने उस लड़की की फोटो मंगवाई।
अट्ठारह वर्षीया गुडुन, दर्द निवारक दवाईयों (Pain Killers) पर जी रही थी और पिछले दस सालों से बिस्तर पर थी। इतनी लम्बी औषधीय-चिकित्सा (Medical Treatments) से वह थक चुकी थी और उसका साधु और सन्तो के प्रति भी विश्वास खत्म हो चुका था। इसलिए वह कहीं किसी के पास, मद्द के लिये जाने को तैयार नहीं थी।
गुरूजी के पास अपनी फोटो भेजने के बाद उसे विश्वास होने लगा तथा उसने सबको बताया कि उसे ऐसा लगने लगा है कि अब वह ठीक हो जायेगी। उसने अपने बड़े भाई सुरेन्द्र से कहा कि वह उसे गुड़गाँव ले जाये।
सुरेन्द्र उसे अपनी बाँहों में उठाकर, स्टेशन पर ले गया। उसके पास रेलवे द्वारा आरक्षित कोई सीट/बर्थ नहीं थी। ट्रेन में बहुत अधिक भीड़ थी। उसने गुडुन से कहा कि बिना बर्थ के इतनी लम्बी यात्रा करना उसके लिए कैसे सम्भव हो सकता है..? क्योंकि गुड्डन को बर्थ पर लिटाना जरूरी था।
तभी वहाँ एक अदभुत बात हुई। संयोग से, उस समय वे लोग एक सेना द्वारा आरक्षित डब्बे (Coach) के पास खड़े थे। रेल के उसी कोच से एक सेना अधिकारी बाहर आया और शिष्टाचार के नाते उन्हें अपने कोच में ले गया। (जबकि सेना द्वारा आरक्षित डब्बे में साधारण यात्री, यात्रा नहीं कर सकता।) उसने एक बर्थ का इन्तजाम किया और बड़े प्यार से गुडुन को उस बर्थ पर लिटा दिया और वे दिल्ली, अपने मामा श्रीवास्तव जी के पास पहुंच गये।
श्रीवास्तव को भी उम्मीद लगने लगी थी क्योंकि एक तो गुडन को भी विश्वास हो चला था जिसकी उन्हें उम्मीद नहीं थी और दूसरे इस हालत में बिना आरक्षित टिकट के रेल यात्रा करना। उसके प्रार्थना करने पर गुरुजी ने गुड्डन को श्रीवास्तव के घर जाकर देखा। गुरुजी ने कहा, यह बिलकुल ठीक हो जायेगी बशर्ते यह कोई दवाई न खाये। गुड्डन के लिए बिना दवाई के कुछ घण्टे बिताना भी मुश्किल था लेकिन गुडुन ने इसके लिये ‘हाँ’ भर दी।
गुरुजी ने अपने दोनों हाथों से उसके मुड़े हुए पैर को पकड़ा और सीधा कर दिया। यह एक असम्भव कार्य था जो परिवार वालों के लिये अद्भुत था। क्योंकि वही गुडुन, जो अपने पैरों को आराम से भी छूने तक नहीं देती थी, वह अब खड़ी थी। वह किसी प्रकार का दर्द महसूस नहीं कर रही थी उसके पैर सीधे हो गये। गुडन ने अविश्वस्नीय राहत महसूस की।
कुछ दिन बाद गुरुजी दुबारा उनके घर आये और गुड्डन से पूछा, “बेटा, मैं आज तुम्हें चलाऊँ….??” उसे इसकी उम्मीद नहीं थी। गुरुजी ने फर्श पर अपना हाथ रखा और गुड्डन को उस पर खड़ा होने के लिये कहा। फिर उन्होंने अपना दूसरा हाथ रखा और गुड्डन का दूसरा पैर भी अपने हाथ पर लिया। इस तरह कुछ मिनटों तक वह गुरुजी के पवित्र हाथों पर चलती रही। वह फर्श पर नहीं गुरूजी के हाथों पर चल रही थी। गुड्डन ने दस सालों के बाद चलना शुरु किया। इस धरती पर एक ‘चमत्कार’ हो गया। उसके परिवार वालों ने यह सब पहली बार देखा। गुरुजी ने दुबारा बड़े वीरवार पर आने के लिए कह कर, उन्हें वापिस कानपुर जाने की अनुमति दे दी।
गुडुन ने इसके बाद कोई दवाई नहीं ली। वह सिर्फ जल तथा लौंग इलायची ही लेती रही।
एक दिन गुरुजी ने उनसे कहा कि गुड्डन को उल्टी होगी और उसमें से कुछ निकलेगा। छः से आठ दिन के बाद ऐसा ही हुआ। उसकी उल्टी में बरफी का एक पूरा साबुत पीस बाहर निकल आया। गुड्डन के परिवार वालों को अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसके मुँह में से साबुत बरफी का पीस कैसे निकला……!!
फिर उन्हें याद आया कि कुछ वर्ष पहले एक महिला ने गुडुन को बरफी दी थी। लेकिन वह बरफी उसने चबाकर खाई थी, निगली तो नहीं थी। बरफी के लगभग दो इन्च बड़े साबुत पीस का बाहर आना, समझ से बाहर की बात थी।
गुडुन अब अपने भाई या परिवार के किसी अन्य सदस्य की सहायता लिये बिना अपने आप स्वतन्त्र रुप से चलती थी। उसके परिवार में उसके माता-पिता के अलावा तीन बहनें व एक भाई, अब बहुत खुः श थे और उन्होंने भी गुरुजी का आशीर्वाद लेने उनके पास गुड़गाँव आना शुरु कर दिया।
गुरुजी ने देखा कि इस परिवार को दृढ़ विश्वास हो गया है तो उन्होंने कृपा की और कानपुर उनके घर गये। वहाँ उन्होंने स्थान बनाया और सुरेन्द्र को आध्यात्मिक शक्तियाँ देते हुए, सेवा करने का आशीर्वाद और आदेश दिया।
गुरुजी ने कहा, “सुरेन्द्र, कानपुर में गुरू के नाम से जाना जायेगा और जो कोई उसके पास आयेगा, ठीक हो जायेगा।” आज तक सुरेन्द्र वहाँ सेवा करता है और उसकी बहन गुडुन भी पूरी तरह से स्वस्थ है और आध्यात्मिक सेवा में उसका साथ देती है।
एक ऐसा व्यक्ति, जो शौच आदि के लिये भी, किसी की सहायता के बिना न जा सकता हो, वह स्वतन्त्र रुप से चले और दूसरों की सेवा करे—–
ये तो सिर्फ गुरुजी के प्रताप से ही सम्भव है।
कोटि-कोटि प्रणाम हैं
साहेब जी……