‘शिवरात्रि’ के दिन थे। हम सब गुड़गाँव में पूर्णरुप से गुरुदेव की शरण में थे। शिवरात्रि के दिन की प्रतीक्षा कर रहे सभी शिष्यों और भक्तों ने देश के चारों ओर तथा विदेशों से आना शुरु कर दिया था। इस दिन सभी उपवास रखते हैं और उपारने के लिए रात 12 बजे के बाद आलुओं के प्रसाद की प्रतीक्षा करते हैं। अतः आलुओं का इस त्यौहार पर एक विशेष महत्व होता है। इसलिए आलुओं की बागवानी सु-नियोजित ढंग से की जाती है और इस समय धरती माँ से आलुओं की खुदाई की जाती है। गुरूजी ने मुझे अपने साथ फार्म पर चलने की आज्ञा दी ताकि वहाँ फसल की खुदाई शुरु की जा सके। हम खेत पर पहुंचे गुरुजी अपने हाथ में उधान उपकरण के साथ खेत में प्रवेश कर गये और मुझे निर्देश दिया कि खेत में जाने से पहले अपने जूते बाहर उतार दूं। फसल के खेत में जाने से पूर्व जूते उतारे जाते हैं, ऐसा मेरा कोई अनुभव नहीं था। मैंने गुरू-ज्ञान की खातिर इसका कारण जानना चाहा कि खेत में नंगे पैर प्रवेश करते क्यों है…? गुरुजी ने कहा, “तुम इन आलुओं को कोई साधारण आलू मत समझना। यह वो आलू हैं जिन से संसार का सबसे ऊँचा प्रसाद बनाया जायेगा, ‘शिवरात्रि का प्रसाद’। इसलिए तुम्हें ऐसे आलू चाहिए जो अपने गुणों में अद्वितीय हों। आध्यात्मिक गुणों, सुन्दरता और ढेर सारी तादाद में ऐसे आलू लेने के लिए तुम किसी आम खेत में नहीं बल्कि बहुत ही खास खेत में प्रवेश करने जा रहे हो। यह खेत जिस धरती का हिस्सा है, उस धरती का सम्मान करो। उसे माँ की तरह सम्बोधित कर, प्रसाद के लिए उचित आलू माँगो। जूता उतार कर अन्दर जाने का अर्थ होगा कि तुमने एक हलीम (सभ्य) बच्चे की भाँति उसका सम्मान किया है।”
…और बेटा, अब तुम स्वयं देखना अपने ऐसे भाव का परिणाम।
…और वाकई मैंने देखा कि बड़े-बड़े साईज़ के बड़े ही सुन्दर और ढेर सारे आलू कई टोकरों में भरकर खेत से बाहर निकाले गये। रंग-रुप में और फैलाव में सचमुच अद्वितीय। आम खेत से जितने निकलते हैं, उससे कहीं अधिक मात्रा में। थोड़ा समय पहले जैसा मुरुजी ने बताया था बिलकुल वैसा ही पाया….. देखने योग्य।
अगर मैं यहाँ अपनी बुद्धि का प्रयोग करता हूँ तो ऐसा लगेगा कि मैं रूढ़िवादी विचार रखता हूँ। लेकिन मैं चाहता हूँ कि वे लोग जो आध्यात्मिक विकास के लाभ हेतु एक विस्तृत चर्चा चाहते हैं जोकि सांसारिक ज्ञान से थोड़ा आगे है। वे मुझसे संपर्क कर सकते हैं।