हर वर्ष की तरह, गुडगाँव स्थान पर ‘गुरु-पूर्णिमा’ मनाई जा रही थी। हजारों की संख्या में भक्तजन गुरुजी को नारियल भेंट कर रहे थे। स्थान हाल में एक सुसज्जित सीट पर गुरुजी विराजमान थे और अनगिनत लोग बारी-बारी से अपने-अपने नारियल उनके चरणों में भेंट करते जा रहे थे और गुरुजी उन्हें माथे पर लगा कर आशीर्वाद के साथ, उन्हीं को लौटा रहे थे ताकि अपने घर पर अगली गुरु-पूर्णिमा तक रख सकें।
शिष्यों के लिए वे अपने कमरे में मातारानी के संग बिस्तर पर बैठते और शिष्य एक-एक करके आते, अपना नारियल उनके चरणों में रखते और दोनों से आशीर्वाद पाते थे। कुछ शिष्य उनके गले में फूलों के हार भी डालते और अपने हाथों से उन्हें मिठाई भी खिलाते और फिर प्रणाम करते। फिर एक थाली में उनके चरण रखवा कर केसर वाले जल से उन्हें धोते और उस जल को पी लेते थे। इस जल को गुरु-चरणामृत कहते हैं। यह चरणामृत गुरु की ओर से सबसे बड़ा वरदान होता है एक शिष्य के जीवन में। लेकिन यह सौभाग्य कुछ चंद लोगों को ही नसीब होता है। इस चरणामृत का विवरण जानने के लिए पूरे वेदान्त की सहायता चाहिए। एक बार जब सब शिष्य अपनी-अपनी गुरुपूजा औपचारिक रुप और विधि पूर्वक सम्पन्न कर चुके और उन सबके नारियल उनके बिस्तर पर रखे हुए थे, तो मुझे अपनी गलती का आभास हुआ। मैंने कहा, “गुरुजी, सबने अपने-अपने नारियल आपको भेंट कर दिए, …परन्तु मैंने तो किया नहीं, मैं तो भूल ही गया ।” गुरुजी ने मेरी ओर देखा और मुस्कुराए। उन्होंने एक नारियल बिस्तर पर से उठाया और मुझे पकड़ा दिया
और कहा, “ले– दे दे अपना नारियल मुझे।” विस्मयभरा आश्चर्य… एक भारी गलती समझ कर, जिस वज़न के नीचे मैं दबा हुआ था, गुरूजी ने एक चुटकी में मुझे मुक्त कर दिया।
–वाह हे गुरुदेव ! हे गुरुओं के गुरु, मेरे हृदयनाथ
— आपको बारम्बार प्रणाम