सुबह का समय था। मेरे निवास स्थान पंजाबी बाग पर मेरे भाई बहनें और उनके परिवारों के समस्त सदस्य एकत्रित थे। काफी समय से बीमार रहने के कारण आज डॉक्टर ने बताया कि अब हमारी माँ का जाने का समय करीब आ गया है। यह समाचार पाकर सब एकत्र हो गये। मेरी माँ सबको बेहद प्रिय और बहुत आदरणीया थी। प्यार बेहद होने के कारण सब बड़े और छोटे उदास तथा चिंतित थे। एकत्रित लोगों में मेरी बहनें, उनके पति और बच्चे, मेरे भाई और उनके बच्चे सब शामिल थे। सब उनसे बहुत अधिक प्रेम करते थे।
तकरीबन दो दर्जन लोग, इस विचार से कि इतनी महान आत्मा, हमारी माताजी, हमें और इस संसार को छोड़ कर हमेशा के लिए जाने वाली हैं। सभी एक गम्भीर उदासी के वातावरण में पूर्णरुप से लिप्त नज़र आ रहे थे। कोई भी ऑफिस, फैक्ट्री या फिर किसी अन्य काम के लिए बाहर नहीं गया था। इतने में एक गुरू-भक्त सुंदर सिंह, मेरे पास गुरूजी का सन्देश लेकर आया और कहने लगा कि गुरुजी रिंग रोड पर मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। मुझे उनके साथ धर्मशाला (हिमाचल-प्रदेश) जाना है। मैंने नज़र घुमाकर परिवारजनों को और फिर माताजी कि तरफ देखा, जो बिस्तर पर लेटी थीं। मैंने एक रुमाल लिया, उसे धोया और निचोड़ते हुए माताजी के कमरे में गया। उन्होंने मेरी ओर देखा और कहने लगी कि उनके पैर जल रहे हैं और इस कारण बड़ी तकलीफ महसूस कर रही हैं। मैंने वो गीला रुमाल उनके पैरों पर रख दिया और कहा कि इससे ठण्ड पड़ जाएगी। मैंने उनसे कहा कि गुरूजी बाहर सड़क पर मेरा इंतज़ार कर रहे हैं और मुझे उनके साथ धर्मशाला जाना है। कुछ दिन के बाद मैं वापिस आकर आपसे यह रुमाल ले लूँगा। बड़ी कमाल की माँ थी मेरी माताजी। कहने लगी कि अच्छा… ठीक है। अब मैं सुंदर सिंह की तरफ मुड़ा और कहा, “…चल चलते हैं।” और सारे परिवार के बीच में से होता हुआ बाहर निकल गया। हो सकता है कि कुछ सदस्यों ने मेरे इस कार्य की निंदा भी की हो कि माँ को इस मुश्किल घड़ी में छोड़ कर चला गया। …मगर जरुरी नहीं। परन्तु किसी ने मुझसे कोई सवाल नहीं किया। कारण… कि मैं गुरुजी के आदेश पर जा रहा था।
वहाँ पहुंचकर मैंने गुरुजी को प्रणाम किया और उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया …और गाड़ी चल दी अपनी मंजिल की तरफ। गुरुजी ने मुझसे माँ के बारे में कोई प्रश्न नहीं पूछा क्यूंकि वे मेरे अंदर-बाहर का सब-कुछ जानते ही थे। बाकी शिष्यों में पंडित रामकुमार एवं आर. पी. शर्मा भी थे। गुरुजी की छाया में हम धर्मशाला पहुंच गए। गुरुजी की अध्यात्मिक छत्र-छाया में यह एक ऐसी यात्रा थी, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। गुरूजी ने हमें भागसुनाथ कुंड में स्नान करने का आदेश दिया। यह एक अद्वितीय बर्फीला और दिव्य सरोवर है..
यहाँ ऋषि भागसुनाथ ने घोर तप किया और भगवान शिव से वरदान प्राप्त किया था। यहाँ सारा साल बर्फीला पानी बहता रहता है और सरोवर खूबसूरत पहाड़ियों से घिरा हुआ है। गुरुओं के गुरू, गुरुजी द्वारा पूर्ण सुरक्षित यह स्नान, हम कभी नहीं भूल पायेंगे। अपने प्रभु के साथ 5-6 दिन बिताने के बाद और कुछ और स्थानों के भ्रमण कराने के बाद, गुरूजी हमें वापिस ले आये और मैं वापिस पंजाबी बाग पहुंच गया। …निसन्देह, मैं माताजी से मिलने के लिए उत्सुक था। अतः मैं सीधा उनके कमरे में गया। नज़ारा देख, मैं गद्गद् हो गया। अपने बिस्तर पर बैठ कर वे कुछ खा रही थीं। एक झटके के साथ, छलाँग मार कर मैं उनके बिस्तर पर चढ़ गया और उन्हें बांहों में उठा लिया …और फिर कहा, माताजी वो मेरा रुमाल मुझे वापिस कीजिये। यह कैसा चमत्कार किया गुरुजी ने…? छ: दिन पहले डॉक्टर और सब सम्बन्धी, जो माता जी को विदाई देने के लिए एकत्रित थे, कोई नज़र नहीं आ रहा था सिवाये, संसार के सबसे बड़े गुरुजी के शिष्य राज्जे के।
….गुरुजी ने मुझे एक पूर्ण तंदुरुस्त और भली-चंगी माँ के साथ अकेले बिठा दिया। यह वह नहीं थी जिसे कुछ दिन पहले डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था। मुझे लगता है कि गुरुजी का यह ईश्वरीय कार्य उसी समय शुरु हो गया था जब गुरुजी कार में जा रहे थे और जैसे ही मैं उनके साथ कार में बैठा था, माँ की बीमारी की रिपेरिंग चल रही थी…! मुझे वहाँ से हटा दिया और खुद सारा समय वे उन्हीं के पास थे।
…वाह मेरे गुरुदेव, मेरे मालिक वाह… …मुझे याद आया जब कुछ समय पहले माताजी ने मुझे कहा था कि मैं गुरुजी की एक तस्वीर उनके बेड़ के सामने वाली दीवार पर लगा दूं ताकि वे लेटे-लेटे उनके दर्शन करती रहा करें। गुरुजी की तस्वीर को देखते हुए, एक वाक्य वे अक्सर बोला करती थी,
“…ओ ! जग के रखवाले, …मैं तेरे हवाले।”
मेरे धर्मशाला जाने से पहले जो लोग वहाँ आये हुए थे उनको आखिरी विदाई देने के लिए सब अपने-अपने घरों को चले गए …और सो गए, मगर गुरुजी जागते रहे। वे कभी नहीं सोते। मैं जानता हूँ, गुरुजी ने कहा था,
“जब सारा ज़माना सोता है, …तो मैं जागता हूँ।”
प्रणाम ….प्रणाम। ……हे गुरुदेव !!!