गुरुजी मुझे अपने साथ लंदन ले गये। मैं अपने गुरुजी के साथ और वह भी विदेश की धरती पर था। सम्पूर्ण वातावरण जैसे आनन्दमय था।
गुरुजी के, एक मिनट के दर्शन के लिए हजारों लोग, घण्टों लम्बा इन्तजार करते थे। कुछ लोग कहते, ”गुरुजी आते तो हैं, परन्तु जल्दी-जल्दी चले जाते हैं तो कुछ लोग कहते, ”हमें तो गुरुजी के दर्शन किये, हफ्तों बीत गये’ और कुछ लोग महीनों बीत गये, बताते।
मुझ पर गुरुजी की कितनी अपार कृपा थी कि विमान में मैं गुरूजी के साथ बिना किसी हस्तक्षेप (दखल-अन्दाजी) के उस वातावरण का भरपूर सुः ख का आनन्द ले रहा था।
गुरुजी के साथ, लॉबी में इन्तजार करते हुए मुझे याद आया कि जब मेरी मुलाकात एक बहुत नामी ज्योतिषी से हुई थी। गुरुजी के बहुत अच्छे मूड़ को देखते हुए मैं उनकी तरफ मुड़ा और बोला, ”गुरुजी, बहुत साल पहले मैं एक ज्योतिषी से मिला था और उस समय उसने मुझसे बीस गुना फीस लेकर मुझे मेरा भविष्य बताया और कहा था कि मैं अपने जीवन में कभी भी विदेश यात्रा नहीं कर सकूँगा। परन्तु वह बहुत झूठा था।”
गुरुजी बोले — ”नहीं बेटा, वह बिलकुल ठीक था” इस पर मैं बोला— “पर गुरुजी, आज मैं लंदन में हूँ और यह विदेश ही तो है!!”
गुरुजी ने मेरी बात सुनी और कहा : ”तू अपने गुरु के साथ है। जब गुरु साथ होता है तो भाग्य के सारे नियम पीछे रह जाते हैं। जिसे गुरु अपनी कृपा दृष्टि में ले लेता है तो उसका भाग्य स्वयं लिखता है।”
गुरुजी बोले—- ‘तुम अपना ध्यान मुझमें केन्द्रित करो और सच्चाई को समझो और जो भी विचार तुम्हारे समक्ष आयें, उन्हें दिल, दिमाग और शारीरिक रुप से अपने गुरु के सामने रखो। फिर जो गुरू कहे, उसे बिना किसी सोच विचार के, अपनी — ‘मैं” को अपने से दूर रख के कर दो। यहाँ पर मैं, किसी संत के द्वारा पंजाबी में कही गयी, निम्न पक्तियाँ दोहराना चाहूंगा…
धर जा, ते मर जा
अर्थात् अपने अहम् का गुरू के समक्ष त्याग कर दे और जैसा गुरू कहे, वैसा कर दे। उसमें से यदि मैं कुछ ना भी कर पाया, तो गुरू के गुरू, ‘महागुरू’ उसे स्वयं कर देंगे।