शुरु-शुरु के दिनों में लोग इन्हें, गुरुजी की तरह नहीं जानते थे। वे भारत सरकार की मिनिस्ट्री ऑफ एग्रीकल्चर में एक भू-वैज्ञानिक के पद पर कार्यरत थे। गुरुजी अपने दफ़्तर जाते थे तथा अक्सर उन्हें हिमाचल प्रदेश, अपने ऑफिश्यिल टूअर्स पर, भूमि सर्वेक्षण के लिये, जाना होता था।
उनके सहयोगी दल (Team) में ड्राइवर के साथ एक सरकारी जीप के अलावा एक ओवर सीयर, एक रसोईयाँ और एक खुदाई करने वाला (सॉयल डिगर) होता था। वे सभी कुछ दिनों तक, किसी एक जगह कैम्प लगाते और वहाँ की मिट्टी के सैम्पल की जाँचकर, उसकी रिपोर्ट, अपने विभाग को देते थे तथा वहाँ पर हुए खर्चे का ब्यौरा भी ऑफिस में देकर, उसका नकद भुगतान अपने ऑफिस के खजान्ची, आर. पी. शर्मा जी से ले लेते थे।
एक बार गुरुजी को उनके द्वारा प्रेषित टुअर बिल के एवज़ में पैसे लेने थे लेकिन कैशियर ने उन्हें, उस दिन भुगतान के लिए मना करते हुए अगले दिन पैसे लेने के लिए कहा। गुरुजी उससे, उसी दिन पैसे देने के लिए आग्रह कर रहे थे क्योंकि उन्हें भी उस दिन पैसों की आवश्यकता थी।
इस पर कैशियर झुंझलाते हुए बोला, “तुझे अपने पैसों की पड़ी है और इधर मैं अपनी बाजू की दर्द से परेशान हूँ। आज मेरे पास दवाई भी नहीं है।”
गुरुजी ने उसके दर्द के बारे में पूछा, तब उसने बताया कि वह अपनी बाजू के दर्द से पिछले कई सालों से परेशान है और रात को वह इस दर्द के लिये बिना दवाई की गोलियाँ खाये सो भी नहीं सकता। इस समय भी उसे बहुत अधिक दर्द हो रहा है और उसके पास, दवाई भी नहीं है।
विषय थोड़ा गम्भीर हो गया |— तब गुरुजी बोले, “अगर मैं तेरा ये दर्द दूर कर दूं, तो क्या तुम मेरे बिलों का भुगतान कर दोगे…?” कैशियर बोला, “अगर तू मेरे दर्द को ठीक कर देगा तो मैं तेरा चेला बन जाऊंगा।” इस पर गुरुजी बोले—-
“यदि आज रात को तुम्हारा दर्द वापिस आता भी है तो भी तुम दवाई मत खाना।”
यह एक प्रकार से जुबानी समझौता हो गया और गुरुजी ने उसे खड़ा होने के लिए कहा। अपने दाँये हाथ की उल्टी तरफ से, उसकी दर्द वाली बाँह को, पाँच बार मारा। वह कैशियर उसी समय बिलकुल ठीक हो गया।
अगले दिन, सुबह जब वह गुरुजी से मिला, तो उसने बताया कि उसकी बाजू में अब बिलकुल भी दर्द नहीं है और उसने कोई दवाई भी नहीं ली। उसने गुरुजी को ये भी बताया कि, पिछले कई सालों में वह आज पहली बार, अच्छी तरह सो सका है।
आगे चल कर वही कैशियर, गुरुजी का परम शिष्य बना। उनका नाम श्री आर. पी. शर्मा है और लोग उन्हें ‘शर्मा गुरुजी’ के नाम से सम्बोधित करते हैं। गुरुजी भी उन्हें बहुत प्यार करते थे और प्यार से उन्हें, ‘मोटे’ कहकर बुलाते और खुश होते थे।
मुझे याद है कि जब एक बार मैं, गुरुभक्ति के मार्ग पर थकान व परेशानी महसूस कर रहा था तो उन्होंने मेरी मद्द, बहुत सरल शब्दों में ज्ञान देकर की थी।
जब कुछ लोग, गुरुजी के पास अपनी पुरानी व असाध्य बीमारियों की समस्याएं लेकर आते, तो गुरूजी उन्हें, शर्माजी के पास भेज देते थे और वे उन्हें ठीक करने में कुछ ही मिनट लगाते थे।
मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है जैसा कि गुरूजी ने उन्हें सिखाया और आदेश दिया था, वे लोगों की पीड़ा के स्थान पर हाथ रखकर ‘ॐ’ शब्द का उच्चारण करते तथा लोग पीड़ामुक्त हो जाते थे। आज भी, मैं उन्हें याद करता हूँ, …तो प्रणाम करता हूँ। गुरुजी जब एक बीमार खजान्ची को गुरू बना सकते हैं, तो मैं किस बुद्धि और विवेक का इस्तेमाल करूं कि मैं गुरूजी को पहचान सकू?