गुरु पूर्णिमा के दिन चल रहे थे, एक दिन देर शाम की बात है स्थान लोगों की भीड़ से खचाखच भरा हुआ था। लोगों की संख्या सैंकड़ों में नहीं, हज़ारों में थी। गुरूजी ने मुझे आदेश दिया कि मैं उनके पीछे आऊं और वे मुझे स्थान की पीछे फ्रिज़ वाले कमरे में ले गये।
गुरूजी बोले—-
“तुम तैयार हो जाओ मैं तुम्हें कुछ दिखाना चाहता हूँ।”
मुझे अंदाज़ा हो गया था कि मुझे अब कोई बहुत बड़ी चीज़ मिलने वाली है।
उन्होंने मुझे सतर्क किया और कहा—-
“बेटा, ऐसा कभी-कभी ही होता है कि मेरे हाथ में यह ‘चक्र’ आ जाता है और
‘ॐ’ अदृश्य हो जाता है।”
गुरुजी ने मुझे अपनी हथेली दिखाई। मैं अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं कर पा रहा था।
गुरूजी की दाहिनी हथेली के बीचों-बीच,
करीब दो इन्च व्यास का, __एक ठोस दीप्तिमान ‘चक्र’, जिसमें से एक टयूब लाईट जैसी सफेद रोशनी निकल रही थी,
विराजमान था।
100% अ-कल्पनीय……!! इसकी कल्पना करना भी सम्भव नहीं था। ऐसा न कभी ज़िन्दगी में देखा और न ही कभी सुना।
‘ॐ’ के दर्शन तो गुरुजी ने कई लोगों को कराये हैं लेकिन इस ‘चक्र’ के बारे में कभी किसी ने नहीं बताया। कुछ शिष्य जिनमें श्री एफ. सी. शर्मा और डा. शंकर-नारायण हैं, जिनसे मेरी बात हुई उन्होंने भी इसके दर्शन किये हैं। इनके अलावा कई अन्य शिष्यों ने भी इस ‘चक्र’ के दर्शन किये होंगे, लेकिन मैंने ऊपर केवल दो शिष्यों के नामों का ही उल्लेख किया है।
साधना, तपस्या और अनन्य भक्ति के द्वारा ही इस लक्ष्य को पाना सम्भव है। तभी शरीर के किसी विशेष भाग पर कुछ इस प्रकार के चिन्ह प्रकट होते हैं।
ज्ञान का होना एक ऊंची बात है लेकिन वह ज्ञान कहाँ से प्राप्त हुआ, यह जानना भी अत्यावश्यक है। किसी ने लिखा और मैंने पढ़ा, यह भी ज्ञान है। लेकिन उसमें से उपजी शंकाओं को दूर करने के लिए प्रमाण की आवश्यकता होती है। लेकिन ऐसी कोई जानकारी जो जिसके स्वयं के ऊपर गुज़री और उसी के मुँह से सुनी हो, बिलकुल शंका-रहित होती है। उसके लिये किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। मैंने यहाँ जिस बारे में जिक्र किया है वह न तो कहीं से सुना और न ही किसी किताब में ही पढ़ा। ये सब मैंने गुरूजी के मुँह से सुना और स्वयं अपनी आँखों से देखा है और वह भी उनके विशेष मूड में तथा अति विशिष्ट समय पर।
गुरूजी के हाथ में ‘ॐ’ का होना, आध्यात्मिक तौर पर एक बहुत बड़ी उपलब्धि है, लेकिन ‘चक्र’ का होना तो और भी बड़ी बात है। जहाँ तक मेरे ज्ञान का प्रश्न है मैं नहीं जानता कि संसार में किसी और को कभी इस पद की प्राप्ति हुई हो। गुरुजी ने कहा—
“एक अथवा अनेक वर्षों में एक बार मेरे हाथ में यह ‘चक्र’ आता है। जब यह आता है, तब मेरे हाथ से ‘ॐ’ अदृश्य हो जाता है। जो शिष्य इसके दर्शन कर लेते है वे अपने आध्यात्मिक सफर का समुद्र पा लेते हैं इसलिए इसका महत्व ‘सर्वोच्च’ है।”