उस दिन क्या परम-आनन्द-पूर्ण दिन था, गुरूजी अपने कमरे में प्रसन्नचित मुद्रा में बैठे हम सबका मनोरंजन कर रहे थे। इस तरह का माहौल हम सब के लिए कभी-कभी ही बन पाता था। हम आठ-नौ शिष्य गुरुजी के पास बैठे बातें कर रहे थे, हंस रहे थे तथा आपस में सवाल-जवाब भी कर रहे थे। ऐसा लग रहा था मानों भगवान स्वयं धरती पर उतर आया हो और एक आम इन्सान की भाँति व्यवहार कर रहा हो तथा हमारी ज़िन्दगी को प्रकाशमान कर, उसमें खुशियाँ बिखेर रहा हो।
हम सब इस परम-आनन्द का सुख लेने में मस्त थे कि अचानक गुरुजी ने विषय बदल दिया। दीवार की तरफ देखते हुए एक शरारत भरी मुस्कुराहट के साथ कहा—-
___ “मेरे शिष्य समझते है….., कि मेरी तस्वीर उलटने से मैं उन्हें देख नहीं सकता। __ बेटा…!!, मैं तुम्हें कभी भी, कहीं भी
जब चाहूँ देख सकता हूँ।”
उसी समय मेरा एक गुरू भाई, मेरे नज़दीक आया और मुझसे बोला, “राजपॉल, तुम्हें समझ में आया कि गुरूजी ने क्या कहा…?” मैंने मुड़कर उसकी तरफ देखा तो वह बोला, “गुरुजी मेरी तरफ इशारा कर रहे थे। कृप्या आप किसी और को मत बताना” वह आगे बोला, “कल रात मैं और तुम्हारी भाभी, आपस में बुरी तरह से लड़ रहे थे लेकिन जैसे ही मैंने ऊपर दीवार की तरफ देखा तो महसूस किया कि गुरुजी दीवार पर लगी तस्वीर में से उसे देख रहे हैं। मुझे शर्म महसूस हुई और मैंने गुरुजी की तस्वीर उल्टी कर दी।” “पर ताज्जुब की बात तो यह है—— कि हमारी हर गतिविधि पर उनकी नजर होती है…!”
मैं और मेरे गुरूभाई आपस में बात करने लगे कि इनसे तो बचना ‘ना-मुमकिन’ है।