गुरुजी, श्रीनगर में थे और उनकी जीप मे अचानक कोई खराबी आ गई। अतः हम, लाल चौक पर स्थित एक मोटर पार्टस की दुकान पर गये। हमने दुकानदार से अपनी जरुरत के पुर्जे देने के लिये कहा। उसने अपने किसी नौकर से वह पुर्जे निकालकर लाने को बोला और स्वयं किसी दूसरे ग्राहक के साथ व्यस्त हो गया। मैं उसकी दुकान में इधर-उधर देख रहा था कि अचानक मेरी नज़र उसकी दुकान के अन्दर उसके काउन्टर के पास लगी, गुरुजी की एक बड़ी सी तस्वीर पर गई।
उस समय गुरुजी, मुझसे केवल तीन फुट की दूरी पर थे। गुरुजी की तस्वीर के आगे धूप जल रही थी और ताजे फूल रखे हुए थे, जो गुरूजी के प्रति उसकी आस्था का बखान कर रहे थे।
मैंने गुरुजी का ध्यान आकर्षित करते हुए कहा कि यह तो आपके किसी खास भक्त की दुकान है। गुरुजी ने मुझे चुप रहने के लिये इशारा किया। मैंने फिर गुरूजी से कहा, “गुरुजी, देखो आपकी इतनी बड़ी तस्वीर और उसके आगे धूप जल रही है। गुरुजी, यह तो आपका बहुत बड़ा उपासक लगता है, मैं चुप कैसे रह सकता हूँ?” गुरूजी ने कहा—-
“यदि इसने मुझे पहचान लिया तो
यह हमसे पैसे नहीं लेगा।”
मैंने कहा, “पर गुरुजी, यह कैसे मुमकिन है कि ये आपको न पहचाने….!! यह तो आप पर अटूट विश्वास वाला भक्त लग रहा है।” मैं तो यह सोच रहा हूँ कि जैसे ही वह अपना चेहरा आपकी तरफ घुमायेगा, वह अपनी दुकान के काउन्टर से कूद कर बाहर आ जायेगा आपको प्रणाम करने। मैंने खुशी से मुस्कुराते हुए कहा—
“आप बच नहीं सकते आज…. गुरुदेव”
गुरुजी बोले–
“राज्जे, ये मुझे तभी पहचानेगा ना जब मेरी इच्छा होगी, …..वरना कभी नहीं।”
और फिर कमाल हो गया।
वह मुझे और गुरूजी को एक साथ देख रहा था और मुझसे बातें भी कर रहा था। हालांकि गुरुजी मेरे दाहिनी तरफ ही खड़े थे, इसके बावजूद भी वह यह नहीं जान सका कि जिनकी वह दिन-रात पूजा करता है, वह उससे चन्द इन्चों की दूरी पर खड़े हैं। हमने उससे पुर्जा लिया, पैसे दिये और उसे बिना कुछ बताये वापिस आ गये।
गुरुजी आप ये कैसे कर लेते हो?
आँखें होते हुए, आपकी तरफ देखते हुए भी कोई आपको पहचान क्यों नहीं सकता?
आपके कितने रुप हैं…,
…..मेरे साहेब जी ?