गुरुजी स्थान के मुख्य द्वार पर खड़े थे और स्थान पर बैठे लोग, एक-एक करके गुरुजी को अपनी-अपनी समस्याएं बता रहे थे और गुरुजी उन्हें आशीर्वाद दे रहे थे। तभी वहाँ एक महिला आई और गुरुजी से कहने लगी कि उसने अभी-अभी शालों का नया कारोबार शुरु किया है उसके व्यापार में “बरकत” के लिए उसे एक नोट देने की कृपा करें। गुरुजी ने अपनी पैन्ट की पिछली जेब से पर्स निकाला, खोला तथा उसमें से बीस रुपये का एक नोट, आशीर्वाद के साथ उसे दे दिया।
यह देखते ही एक और महिला आई और उसने भी प्रार्थना की, कि उसके बेटे के कारोबार में बढ़ोतरी के लिए उसे भी, एक नोट देने की कृपा करें। गुरूजी ने उसी पर्स में से बीस रुपये का एक और नया नोट निकाला तथा आशीर्वाद के साथ, उसे भी दे दिया।
बस फिर क्या था, हाल में बैठा हर व्यक्ति, गुरुजी के पास आया और ऐसे ही प्रार्थना करने लगा और गुरुजी उनको बीस-बीस के नये नोट पर्स से निकाल-निकाल कर देते चले गये।
सौभाग्यवश, उस समय मैं गुरुजी के पीछे खड़ा, यह सब देख रहा था। उन्होंने करीब अस्सी लोगों को आशीर्वाद दिया और उन सभी को, बीस-बीस के नये नोट पर्स से निकाल-निकाल कर देते चले गये।
जब मैंने सीताराम जी को इस बारे में बताया तो वह बोले, बीस के नोट के साईज़ के हिसाब से अस्सी नोट, गुरुजी के पर्स में आ तो नहीं सकते, जबकि गुरूजी पर्स को भी मोड़कर जेब में रखते हैं।
लेकिन यह सत्य है और ये सब मेरी आँखों के सामने हुआ था। मेरे सामने ही उन्होंने पर्स को जेब से निकाला, खोला और उसमें से एक-एक नोट निकालते और देते चले गये। मेरे अनुमान से लगभग अस्सी लोगों को अनुगृहीत किया था गुरुजी ने।
परन्तु अस्सी नोट पर्स में डालकर पर्स को मोड़ा नहीं जा सकता, ऐसी मेरी भी धारणा है। लेकिन जब गुरुजी ने अपनी जेब से पर्स निकाला था तो वह मुड़ा हुआ था।
जिज्ञासावश, मैंने जब गुरुजी से पूछा तो उन्होंने मेरी बात को उड़ा दिया और कहा—–
“बेटा, मैं किसी को भी ‘ना’ नहीं कह सकता।” और “मेरा पर्स भी कभी खाली नहीं रह सकता।”