ब्रह्मज्ञान के लिये वैसे तो, गुरुजी के द्वार, हर किसी के लिये खुले थे लेकिन लोग इनके पास विभिन्न प्रकार की इच्छाएँ और विभिन्न कारणवश आते थे, जिनमें से—–
कुछ लोग, संसारिक ज़रुरतों को पूरा करने की प्रार्थना करते थे।
कुछ, उनसे अपनी बीमारियाँ दूर कर, एक स्वस्थ शरीर के लिये प्रार्थना करते।
कुछ लोग, उनके पास अपनी मानसिक बीमारी का इलाज करवाने के लिये आते थे।
कुछ जिज्ञासु, जिन्हें भगवान के प्रति आस्था होती, वे उनसे आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के लिये आते थे।
कुछ लोग उनके पास आते और उनके द्वारा किये जा रहे मुश्किल और असम्भव कार्यो को इतनी सहजता से करते देख, उनसे दूर नहीं होना चाहते थे।
कुछ ऐसे भी आते, जो उनसे बहुत प्यार करने वाले होते वे सिर्फ उनको देखने के लिये आते और उनको देख कर ही आनन्दित होते रहते थे और.. कुछ ऐसे भी होते, जिन्हें गुरुजी स्वयं प्यार करते थे….
लेकिन मजे की बात तो ये है कि गुरूजी से जो कोई भी मिलता, वह यही कहता हुआ आता था कि —
गुरुजी, सिर्फ उसे ही, सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं। कितने ही लोग बड़े वीरवार के दिन, गुरूजी से मिलने
आते जिनकी गिनती करना भी सम्भव नहीं था। करीब दो किलोमीटर लम्बी लाईनें सुबह से रात के बारह-एक बजे तक लगी रहती थी। करीब पचास से साठ हज़ार लोग उनके दर्शन कर, उनसे आशीर्वाद प्राप्त कर पूर्णतयाः सन्तुष्ट हो अपने घर वापिस जाते थे। हर किसी को ऐसा लगता था, जैसे उसका, उनके पास आने का उद्देश्य पूरा हो गया है।
अर्थातः उसका पूरे महीने का कोटा, उसे मिल गया है। वे आराम से खुशी-खुशी वापिस, अपने घर लौट जाते थे।
एक प्रबल, अकथनीय, संतोष की झलक उनके चेहरे पर स्पष्ट रुप से देखी जा सकती थी। बड़े वीरवार के बाद वे बहुत प्रसन्नचित होते तथा उनका व्यवहार भी बहुत खुशनुमा हो जाता था।
वे दुबारा स्थान पर आने के लिये अगले बड़े वीरवार की प्रतीक्षा करते ताकि वे दुबारा से अपने अन्दर इस उर्जा का संचार कर सकें……।।