अस्सी के दशक के अन्त की बात है एक शाम हमेशा की तरह मैं गुरुजी के दर्शन करने हेतु गुड़गाँव गया। इससे पहले कि मैं गुरुजी के कमरे की तरफ अपने कदम बढ़ाऊँ, गुरुजी का एक प्रिय सेवादार पूरन मेरे पास आया और आकर उसने मुझे प्रणाम किया तथा कहा, “गुरूजी ने कहा है कि कोई भी शिष्य मुझसे ना मिले, जब तक मैं उसे बुलाऊँ नहीं।” मैंने उससे पूछा कि यह आदेश सबके लिये है या फिर सिर्फ मेरे लिए….? उसने जवाब दिया, “गुरुजी ने किसी का नाम तो नहीं लिया।” मैंने पूरन को कहा कि जाओ और गुरुजी से कहो कि मैं आया हूँ। हो सकता है कि वे मुझे दर्शन की अनुमति दे दें..? इतना सुनने पर पूरन बोला, “उनका यह भी आदेश है कि मैं किसी का संदेश लेकर भी उनके पास न आऊँ।” मैं समझ गया कि यह आदेश सभी के साथ-साथ मेरे लिए भी है। मैं छोटे कमरे में सैटी पर बैठ गया और उनके आदेश का इन्तजार करने लगा। उस समय शाम के छः बजे थे। छ: बजे से रात के नौ बज गये और फिर बारह भी बज गये। लेकिन कोई संदेश नहीं आया। आखिर मैं सो गया। करीब एक घण्टे के बाद, कमरे के साथ लगी रसोई में से कुछ शोर सुनकर मैं जाग गया और सोचने लगा कि शायद अब गुरुजी मुझे बुलायेंगे। लेकिन दरवाजा अन्दर से बन्द था। अन्दर कोई बातें कर रहा था, जो मुझे स्पष्ट रुप से सुनाई नहीं दे रहा था। मैंने दरवाजा खटखटाने के लिए सोचा फिर पता नहीं क्या सोच कर मैंने ऐसा नहीं किया। कुछ देर बाद मैं वापिस आकर बिस्तर पर सो गया। सुबह छ: बजे पूरन ने आकर मुझे जगाया और कहा कि गुरुजी ने बुलाया है। मैं तुरन्त उठा और गुस्जी के कमरे में चला गया। वहाँ गुरुजी कुछ सेवादारों से बातें कर रहे थे। मैं जमीन पर बैठ गया और कुछ देर तक इन्तजार करता रहा। जब वे उन सेवादारों से बात कर चुके तो मैंने कहा, “गुरूजी, आपने मुझे दर्शन नहीं दिये, मैं सारी रात इन्तजार करता रहा। मगर गुरुजी, खाना तो दे देते, मैं भूखा ही रहा रात भर ।”
गुरुजी ने मुझे इसका कोई जवाब नहीं दिया। कुछ देर रुकने के बाद गुरुजी से दिल्ली वापिस आने की इजाज़त लेकर, मैं उनके कमरे से बाहर आ गया। जब मैं रसोई के सामने से गुजरा तो मैंने देखा कि रात के खाने की खाने से भरी हुई दो थालियाँ रसोई के स्लैब पर पड़ी हुई थीं। मेरे पूछने पर बिटू ने मुझे बताया कि कल रात गुरुजी और माता जी ने खाना नहीं खाया। सुनकर मैं चकित रह गया और मुझे अपने आप पर बहुत शर्म महसूस हुई कि मैंने गुरुजी से क्यों कहा कि मैं रात भर भूखा पड़ा रहा। मैंने इतना भी नहीं सोचा कि गुरुजी तो खाना तब खाते हैं, जब सबको खिला लेते हैं। माताजी हमेशा गुरुजी के खाने के बाद ही खाना खाती थी और गुरुजी अपने शिष्यों को खिलाने के बाद। मुझे केवल अपनी और अपने खाने की ही चिन्ता थी..? पिछली रात मैंने खाना नहीं खाया तो गुरूजी ने भी खाना नहीं खाया और ज़ाहिर है माता जी ने भी नहीं खाया। यह है मेरे गुरुजी का संसार। बाहर के बाकी संसार से बिल्कुल अलग। मुझे विश्वास है कि इस तरह का उदाहरण कहीं और मिलना मुमकिन नहीं है। हमारे साहिब जी को देखिए…. क्या उन्हें कोई देखता है कि वे खाना खा रहे हैं….?
….हे गुरुदेव। आप सभी को चाहे वे कितनी भी दूरी पर क्यों न हों, देख सकते हैं और समझ में ना आने वाले तरीके से जान भी सकते हैं।
मेरी भूल को क्षमा करें मेरे मालिक….
…..बार-बार प्रणाम गुरूजी।।