गुड़गाँव गुरुजी के पास पहले मैंने रविवार और छुट्टी के दिन ही जाना शुरु किया। जब मैं उनके पास जाता तो देखता कि वहाँ बहुत से लोग तरह-तरह की बीमारियों से पीड़ित और अपनी घरेलू परेशानियाँ लेकर आते और गुरुजी के चरण छूकर उन्हें, दूर करने की प्रार्थना करते। जैसे ही गुरुजी उन्हें छूते उनके छूने मात्र से ही वे लोग दर्द-मुक्त हो जाते। यह सब कुछ में वहाँ चुपचाप बैठा अचम्भित होकर देखता रहता। ये मेरे जीवन में इस तरह की असाधारण घटनाऐं थी।
अब मैंने लगातार गुड़गाँव जाना शुरु कर दिया। घण्टों तक कारपेट पर बैठा हुआ देखता रहता। मैंने देखा कि गुरुजी हर किसी व्यक्ति का एक जैसे ही मिलते। फिर वह चाहे अमीर हो या गरीब, बच्चा हो या फिर बूढ़ा। एक भी स्त्री या पुरुष मैंने ऐसा नहीं देखा जिसने ये शिकायत की हो कि उसकी समस्या का समाधान नहीं हुआ है।
एक दिन एक महिला आई और बोली, ”गुरुजी, मेरा दाहिना हाथ नहीं खुलता। मेरी उंगलियाँ तथा हथेली आपस में जुड़ गयी हैं।” गुरुजी ने कहा ”तुम कुछ दिन पहले दोपहर को एक बगीचे में गई थी। इन्हीं हाथों से तुमने बगीचे सम्बधित कार्य भी किया था। उस समय वहाँ पर एक बुरी आत्मा आनन्द मगन थी। तुम्हारे उपरोक्त कार्य की वजह से उसके आनन्द में बाधा उत्पन्न हुई, जिससे वह क्रोधित हो गई और उसी ने तुम्हारे हाथ को कस के बन्द कर दिया है।
“मैं इसे खोल दूंगा बेटा” ऐसा कह कर गुरुजी ने उसकी उंगलियों के जोड़ों पर स्ट्रोकस (Strokes) लगाये। तभी कुछ समय बाद, मैंने देखा कि उसके हाथ खुल गये और उसकी उंगलियाँ भी सीधी हो गई। मेरी समझ में ये नहीं आ रहा था कि ये सब कैसे हो गया……!!
मैं पिछले कई सालों से देश में, उत्तर से दक्षिण तक। कई साधु-सन्तों से मिल चुका था, लेकिन इस तरह का अद्भुत नजारा मैंने,कभी नहीं देखा था।
खैर………. !! वह महिला बिलकुल ठीक हो गई और खुः शी-खुः शी मुस्कुराते हुए चली गई। हर बार एक ही नहीं सभी को इस अनोखे ढंग से बिना किसी दवाई के सिर्फ जल, लौंग व इलायची या सिर्फ हाथ से छूकर, व्याधि मुक्त करते हुए देख, मुझे यह आभास होने लगा जैसे कि मैं एक अलग संसार में आ गया हूँ, जहाँ पर गुरुजी मनुष्य रुप में भगवान की तरह सबके काम कर रहे हैं। मैंने गुरुजी को सुबह से रात तक काम करते हुए देखा लेकिन उनके चेहरे पर कभी भी थकान प्रतीत नहीं हुई। जहाँ तक उनके खाने का सम्बन्ध है, वे सिर्फ कुछ कप चाय ही पीते थे। यदि कोई उन्हें मिठाई या फल देता तो वे उसे वहाँ उपस्थित लोगों में बाँट देते थे, परन्तु वे स्वयं नहीं खाते थे। मैं उनकी भाव-भंगिमा की व्याख्या करने में अपने आप को असमर्थ पाता हूँ। उनका लोगों से बात करने का तरीका ऐसा लगता था कि उनको लोगों की सेवा करके बहुत आनन्द आता था। लोग भी उनके पवित्र चरणों को छूकर अपने आप को धन्य और सुरक्षित समझते थे। उनके चेहरों पर भी सम्पूर्ण संतोष स्पष्ट झलकता था। जैसे उन्होंने अपनी मंजिल पा ली हो।