गुरूजी का जन्म स्थान, पंजाब के होशियारपुर जिले के हरियाना गाँव में है। गुरुजी अपने कुछ शिष्य, जिनमें सीताराम जी, सनेत के सुरेश जी, आर. पी. शर्मा जी तथा मैं, राजा (जैसा कि गुरजी मुझे बुलाते थे) दिन की सेवा समाप्त करने के उपरान्त हमें एक छोटे से कमरे जिसमें बिस्तर आदि रखे जाते थे, में ले गये।
गुरूजी करीब आधी रात तक हम सब पर आध्यात्मिक ज्ञान और आशीर्वादों की वर्षा करते रहे। उसके बाद उन्होंने खाना लाने का आदेश दिया।
मक्की की रोटी और सरसों के साग तथा घी के साथ खाना आ गया। उन्होंने अपने हाथ से साग में घी डाला और बड़े प्यार से हमें खिलाने लगे, “खा पुत, खा” कहते-कहते, उन्होंने अपनी प्लेट उठाई तथा हम सबने एक साथ खाना शुरु किया।
खाना समाप्त होने से कुछ पल पहले, जब गुरुजी अपने मुँह में साग से भरी चम्मच ले जा रहे थे तभी गुरुजी ने ‘ॐ’ शब्द का उच्चारण किया और साथ ही कोई अन्य दो शब्द भी बोले। अचानक उनके दोनों हाथ चम्मच सहित नीचे लटक गये। हमने देखा कि उनकी आँखें बन्द हो गई हैं और शरीर भी शिथिल पड़ गया है। हम सभी लोग घबरा गये और उनके चेहरे की तरफ टकटकी लगाकर देखने लगे।
हमने देखा कि उनका शरीर बिलकुल स्थिर है और उसमें कोई हलचल नहीं। हमें उस समय कुछ भी समझ नहीं आया, हम भयभीत हो गये। हम कभी उनकी नब्ज टटोल रहे थे तो कभी सांस, और कभी उनके हृदय की धड़कन सुनने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन हमें वहाँ कुछ भी नहीं मिल रहा था, ना नब्ज़, ना सांस और ना ही दिल की धड़कन।
ओह………!!
यह क्या हो गया? …ऐसा तो हमने कभी सोचा भी नहीं था। हमने वही घी लिया और गुरुजी की हथेलियों पर, पैर के तलुवों तथा टाँगों पर उनकी मालिश करना शुरु कर दिया ताकि शरीर में उर्जा उत्पन्न हो। हम उन्हें अपनी पूर्वावस्था में लाने की पूरी कोशिश कर रहे थे लेकिन सब बेकार…………!!
तभी अचानक सीताराम जी की नज़र, गुरुजी की घड़ी पर पड़ी और वे बोले, “राजपॉल, मैंने माता जी से सुना है कि कभी-कभी इसी समय गुरुजी अपना शरीर से बाहर निकलकर कहीं जाते हैं और कुछ समय के बाद फिर वापिस आ जाते हैं। हो सकता है वह कहीं गये हों। इस समय सुबह के दो बजकर बीस मिनट हुए हैं और यह समय ‘गुरु-पहर’ कहलाता है। यह पहर सुबह साढ़े तीन बजे तक रहेगा। अतः हमें घबराना नहीं चाहिए और सुबह साढ़े तीन बजे का शान्ति से इंतजार करना चाहिए जब तक गुरूजी अपने शरीर में वापिस न आ जायें। अतः हम मालिश आदि करना छोड़, चुपचाप बैठ गये।
रात का समय, एकदम एकान्त तथा शान्त वातावरण ऐसा कि यदि एक सुई भी गिरे तो उसकी भी आवाज़ सुनाई दे। हमारे लिए एक-एक मिनट भी गुज़ारना मुश्किल हो रहा था। परन्तु किसी तरह से हम सब ने सुबह के साढ़े तीन बजे का बड़ी बेसब्री से इन्तज़ार किया।
अचानक ‘ॐ’ की एक तेज ध्वनि के साथ गुरुजी ने अपनी आँखें खोली और सीधे खड़े हो गये। हम सब की तरफ देखे बिना ही कमरे से बाहर चले गये। गुरूजी का यह रुप असाधारण था और हममें से किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि हम उन्हें पुकार सकें। उस समय रात्रि के साढ़े तीन बजे थे हमारे मन अब शान्त थे, हम सोने की कोशिश करने लगे।
लेकिन सच तो यह है कि किसी व्यक्ति का इस तरह शरीर से बाहर निकलकर जाना और सवा घन्टे के बाद उसी शरीर में फिर लौट आना, संसारी समझ से परे की बात है।
यह अपने बस की बात कैसे हो सकती है…? यह तो सिर्फ भगवान के हाथ में है कि वह किसी की आत्मा को शरीर से बाहर निकाल, उसे एक नये शरीर में डाल एक नया जन्म देता है। परन्तु अपने आप अपने शरीर से बाहर निकल जाना और कुछ समय के बाद फिर उसी शरीर में लौट आना, बिलकुल अविश्वस्नीय सी बात लगती है। लेकिन गुरुजी ने ऐसा हम चारों शिष्यों के सामने किया।
भगवान ही की तरह उनका अपनी आत्मा पर इतना नियन्त्रण और अधिकार है……!! मैं नहीं कह सकता कि किसी भी जन्म में मैंने इस तरह का अनुभव पाया हो। दिमाग और बुद्धि, जो अब तक हमारे जीवन का आधार है सब धराशाई हो गया और मैं देखता ही रह गया। इतनी बड़ी बात और इतनी सरलता से कर दी गुरुदेव ने और वो भी पूर्ण प्रेक्टीकल रुप में..!!
आफरीन गुरुदेव…… ।। साधु और तपस्वी भी समाधि की अवस्था में जाने से पूर्व, उचित समय और उचित स्थान का प्रबन्ध करते हैं। इसके साथ-साथ कुछ शिष्यों को नियन्त्रण सौंप कर, यह क्रिया करते हैं। समाधि के लिये उचित जगह का चुनाव, समाधि पर बैठने के लिये उचित मुद्रा जैसे पद्मासन आदि और उसके बाद प्राणायाम की क्रिया शुरु होती है। यह कार्य कुछ मिनटों तक करने के उपरान्त ही एक साधक, अपनी समाधि की अवस्था में जाता है। अब तक जितना मैं समझ सका हूँ, कि उनकी आत्मा, शरीर के ही किसी चुने हुए स्थान पर, स्थिर रहती है।
लेकिन गुरूजी ने ऐसे किसी नियम या तरीके को नहीं अपनाया। गुरूजी मक्की की रोटी और सरसों का साग खा रहे थे और खाते-खाते एक चम्मच साग अपने मुँह में रखा और उसे चबाने लगे। अचानक चबाना बन्द कर दिया और तभी गुरूजी ने ‘ॐ’ शब्द का उच्चारण किया और कोई अन्य और दो शब्द भी बोले और अचानक उनके दोनों हाथ नीचे उनकी गोद में लटक गये।
यह सब मेरे तथा मेरे गुरू भाई आर. पी. शर्मा जी, सीताराम जी, तथा सनेत (हिमाचल) के सुरेश, हम सब के सामने हुआ और इसमें कुछ सैकिण्ड का ही समय लगा।
——-असम्भ
व……..
मैंने न तो कभी सुना न कभी देखा और न ही कहीं पढ़ा। जैसा गुरुजी ने किया। बस सोचा.. और सैकिण्ड में शरीर से बाहर निकल गये और वह भी खाना खाते-खाते…….!!
मैं बचपन से बहुत जिज्ञासु हूँ। मैं बहुत से महा-पुरुषों से मिला लेकिन मैंने ऐसा पहले कभी नहीं देखा।
करीब सुबह छः बजे गुरुजी जब कमरे में वापिस आये तो हम सब को डाँटने लगे—-
“ये क्या किया तुमने, घी लगा-लगा कर भर दिया मुझे, क्या समझा था…… गुरू मर गया है? इतना घी तुमने मेरी बाजुओं और टाँगों पर लगाया।” वे आगे बोले—
“मैं क्या कर रहा हूँ, यह देखने तुम मेरे पीछे नहीं आ सकते थे, क्या मैंने पहले तुम्हें ये सिखाया नहीं था?”
“गुरुजी हमें क्षमा कर दीजिए। गुरुजी यह हमारे लिए एक नया अनुभव था, हमारी बुद्धि ने काम नहीं किया। कृपा कीजिए गुरुदेव…, हमें क्षमा कर दीजिए…|” हम सिर्फ इतना ही कह सके,
अगर यह इतना ही आसान है कि इस तरह से शरीर से बाहर निकल जाना और फिर दुबारा उस शरीर में वापिस आना तो इनसे पहले ऐसा किसी ने क्यों नहीं किया था। स्पष्ट है कि गुरूजी स्वयं भगवान हैं…..
जब हम लोगों ने यह निर्णय लिया कि गुरूजी का हम सुबह साढ़े तीन बजे तक इन्तज़ार करेंगे…, तो उस समय आर. पी. शर्मा जी. गहरी निद्रा में चले गये। जब गुरूजी साढ़े तीन बजे अपने शरीर में वापिस आये और कमरे से बाहर चले गये तो शर्मा जी भी उठ गये। वे बहुत आनन्दित लग रहे थे। उन्होंने सोई अवस्था में जो कुछ देखा उसका पूरा वृतान्त हमें सुनाया।
शर्मा जी ने बताया कि वहाँ एक बड़ी सी गुफा थी। उसमें बहुत से तपस्वी थे, जिनकी लम्बी-लम्बी दाढ़ी और लम्बे-लम्बे बाल थे। वह तपस्वी, उनके रास्ते के दोनो तरफ बैठे थे। गुरूजी सीधा जा रहे थे और वे अपना सिर झुकाकर तथा अपने दोनो हाथ ज़मीन की तरफ किये हुए गुरुजी का अभिवादन कर, उन्हें प्रणाम कर रहे थे। लेकिन गुरुजी उनकी तरफ नहीं देख रहे थे और इन सबसे बेखबर चुपचाप आगे चले जा रहे थे।
शर्माजी ने आगे बताया कि वे गन्तव्य बिन्दु नहीं देख पाये जहाँ पर गुरूजी गये थे। उससे पहले ही वह जाग गये।
अब मैं गहरी सोच में पड़ गया। गुरुजी उस गुफा में जा रहे थे जहाँ तपस्वी तप कर रहे थे। जैसे ही गुरुजी ने वहाँ प्रवेश किया उन्होंने उनकी उपस्थिति महसूस की तथा अपनी साधना रोक, उन्हें झुककर अभिवादन तथा प्रणाम किया। वे तपस्वी सैंकड़ों वर्षों से उस गुफा में तप कर रहे होंगे। जाहिर है कि वे भी सिद्ध पुरुष ही होंगे। उन्होंने गुरुजी को देखा, पहचाना और प्रणाम किया…। क्या गुरुजी वोही तो नहीं जिनके लिये ये तपस्वी बैठे हुए तप कर रहे थे……???
……ये तो सिर्फ गुरूजी ही बता सकते हैं।